Book Title: Nyayabindu
Author(s): Dharmottaracharya
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Granthmala

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Page 202
________________ न्यायविन्दु तृतीय परिच्छेद। त्रिपलिङ्गाख्यानं परार्थानुमानम् । शिकपलिङ्गका कहना पगानुमान है। कारणे कार्योपचारात् । क्योंकि यहाँ कारणमें कार्यका उपचार किया जाता है। (त्रिरूपलिङ्ग के कहने से त्रिरूपलिङ्गकी स्मृति उत्पन्न होती है। स्मृति से अनुमान होता है। अतएव विरूगलिङ्ग का कहना अनु. मान का परमरासे कारण है। उस कारगवचनम कार्यअनुमान का उपचार ( समारोप) किया जाता है। ____सहकारी आदि होनेके कारणसे अतद्भाव ( जो उस स्वरूप न हो ) में तत् ( उसी स्वरूप के समान ) के कहने को उपचार कहते हैं।) ___ सद्विविध प्रयोगभेदात् । परार्थानुमान के प्रयोग के भेद से दो भेद होते हैं साधर्म्यत्रद्वैवर्यवञ्चति । साधर्म्यवत् और वैधय॑वत् । नानयोरर्थतः कश्चिद्भदोऽन्यत्र प्रयोगभेदात् । इन दोनोंमें भेद केवल प्रयोगसे ही है अर्थ से कुछ भी नहीं है । तत्र साधर्म्यवद्यदुपलब्धिलक्षणमाप्तं सन्नापलभ्यते सोऽसद्व्यवहारविषयः सिद्धः । उसमें से साधर्म्यवत् जो उपलब्धिलशगप्राप्त होता हुआ भी उपलब्ध नहीं होता वह असद्व्यवहारका विषय होता है ( अर्थात् उसका अभाव होता है )। यह सिद्ध है। यथान्यः कश्चिदृष्टः शशविषाणादिः'। जैसे खरहे के सींग आदि कोई अन्य ( साध्यधी से ) दृष्ट (प्रमाण से निश्चित ) है। १.पोटर्सन संस्करण में शशविषादिः' के पश्चन् विरामनिह न देकर उसे अगले दा. काम मिला कर -विप दिनधि -' कर दिया।

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