Book Title: Nyayabindu
Author(s): Dharmottaracharya
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Granthmala

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Page 200
________________ न्यायविन्दु काविरुद्धोपलब्धि ( प्रतिषेध्यके कार्यके विरुद्धको उपलब्धि ) जैसे-यहां पर अप्रतिबद्ध सामर्थ्यवाले शीतके कारण नहीं हैं। क्योंकि यहां अग्नि है ॥७॥ व्यापकविरुद्धांपलब्धियथा । नात्र तुपारस्पर्शोऽग्रेरिति । व्यापकविरुद्धोपलब्धि ( प्रतिषेध्यके व्यापकसे विरुद्धकी उ. पलधि )जैसे-यहां तुषारका स्पर्श नहीं है। क्योंकि यहां अग्नि है ॥ ८ ॥ कारणानुपलब्धियंथा । नात्र धूपोऽसभ्यभावादिति । कारणानुपलब्धि ( प्रतिषेध्यके कारणकी अनुपलब्धि )जैसे-यहां पर धूम नहीं है क्योंकि यहां अग्निका अभाव है ॥२॥ कारणविरुद्धोपलब्धियथा । नास्य रोमहर्षादिविशेषाः संनिहितदहनविशेषत्वादिति । कारणविरुद्धोपलब्धि (प्रतिषेध्यके कारणके विरुद्धकी उपलब्धि) जैसे-इस पुरुषको रोमहर्ष आदि नहीं हो रहे हैं। क्योंकि उसके पास अग्निविशेष है ॥ १० ॥ कारणविरुद्ध कार्योपलब्धिर्यथा । न रोमहर्षादिविशेष. युक्तपुरुषवानयं प्रदेशो धृमादिति । कारणविरुद्धकार्योपलब्धि ( प्रतिषेध्यकारणके विरुद्धके कार्यकी उपलब्धि ) जैसे-इस प्रदेशमें रोमहर्ष आदिसे युक्त पुरुष नहीं है; क्योंकि पहां धूम है ॥ ११॥ इमे सर्वे कार्यानुपलब्ध्वादयो दशानुपलब्धिपयोगाः स्वभावानुपलब्धौ संग्रहमुपयान्ति । यह सब कार्यानुपलब्धि आदि दश अनुपलब्धिके प्रयोग स्वभावानुपलब्धि ही आ जाते हैं। पारंपर्येणार्थान्तरविधिप्रतिषेधाभ्यां प्रयोगभेदेऽपि प्रयोगदर्शना भ्यासात्स्वपमप्येवं व्यवच्छंदातीतिर्भवतीति स्वार्थेऽप्यनुमानेऽस्याः प्रयोगनिर्देशः । [ कार्यानुपलब्धि आदिमें यद्यपि [ अर्थान्तरसे विधि और प्रतिषेधसे प्रयोगभेद है तथापि परम्परासे ] स्वभावानुपलब्धिम अन्त

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