Book Title: Nyayabindu
Author(s): Dharmottaracharya
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Granthmala

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Page 208
________________ १८ भाषाटीका सहित तथा वैधयवस्मयोगेऽपि 'यः सयवहारविषय उपलब्धि. लक्षणप्राप्तः स उपलभ्यत एव, न तथात्र तादृशो घट उपल. भ्यत' इत्युक्ते सामर्थ्यादेव नेह सब्यवहारविषय इति भवति । उसीप्रकार वैधर्म्यवत् प्रयोगमें भी 'जो सद्व्यवहारका विषय और उपलब्धिलक्षगप्राप्त है वह उपलब्ध होता ही है इसीप्रकार यहां वैसा घट उपलब्ध नहीं है। यह कहनेपर सामर्थ्यसे ही यहां पर घट सद्व्यवहारका विषय नहीं है' यह हो जाता है। कीदृशः पुनः पक्ष इति निदश्यः । 'अब पक्ष कैसा होता है' यह कहा जाता है। खरूपणैव स्वयमिष्टो ऽनिराकृतः पक्ष इति । जो स्वरूपसे ही स्वयं इष्ट और अनिराकृत हो उसे पक्ष कहते हैं। स्वरूपेणेति साध्यत्वेनेष्टः । स्वरूपेणैवेति साध्यत्वेनेष्टो न साधनत्वेनापि। . यथा शब्दस्यानियत्वे साध्ये चाक्षुषत्वं हेतुः । 'स्वरूपसे इष्ट' शब्दसे पक्षको साध्य बतलाया है। स्वरूपसे ही साध्यरूपसे ही माना गया है साधनरूपसे भी नहीं माना गया। जैसे-शब्दकी अनित्यताको साध्य करनेमें चाक्षुषत्व ( नेत्रसे उत्पन्न होना ) हेतु देना। शब्देऽसिद्धत्वात्साध्यं न पुनस्तदिह साध्यत्वेनैवेष्टं साधनत्वेनाप्यभिधानात् ।। वह शब्दमें असिद्धहोनेसे साध्य है। उसको यहां केवल साध्य ही नहीं माना है। क्योंकि उसे साधन भी कहा है। 'स्वयं इस पदका समर्थन__स्वयमिति वादिना यस्तदा साधनमाह । एतेन यद्यपि कचिच्छास्त्रे स्थितः साधनमाह । तच्छास्त्रकारेण तस्मिन्धर्मिण्यनेकधर्माभ्युपगमेऽपि यस्तदा तेन वादिना धर्मः स्वयं साध. यितुमिष्टः स एव साध्यो नेतर इत्युक्तं भवति । १. पीटर्सन संस्करण का निराकृतः' पाठ अशुद्ध है। २. पीटर्सन संस्करण का स्थितसाधनमा ह' पाट हमार सम्मति में अशुद्ध है।

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