Book Title: Nyayabindu
Author(s): Dharmottaracharya
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Granthmala

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Page 195
________________ भाषाटीका सहित साध्यधर्म सामान्येन समानोऽर्थः सपक्षः । जो पदार्थ साध्यधर्मके समान हो उसे सपक्ष कहते हैं । (बौद्धग्रन्थों में 'धर्म' शब्द के चार अर्थों में चार प्रयोग मिलते हैं( १ ) Scriptural Texts या मूल धार्मिक पुस्तकें | ( २ ) Quality या गुण । ( ३ ) Cause या हेतु । और ( ४ ) Unsubstantial and Soullsss या निसत्त्व और नि: जव । इसको पाली में 'निसत्त निजीव' कहते हैं । हमारी सम्मति में न्यायबिन्दु के समासों में 'धर्म' शब्द का तीसरे अर्थ में प्रयोग किया गया है ।) न सपक्षोsसपक्षः । जो सपक्ष नहीं होता उसे विपक्ष या असपक्ष कहते हैं । ततोऽन्यस्तद्विरुद्धस्तदभावश्चेति । जो वस्तु सपक्षसे भिन्न हो या सपक्षके विरुद्ध हो अथवा जिसमें सपक्षका अभाव हो वह असम्पक्ष होती है । त्रिरूपाणि च ॥ [ ऊपर कहे हुए ] त्रिरूप हैं । त्रीण्येव च लिङ्गानि - अनुपलब्धिः स्वभावकार्ये चेति । लिङ्ग भी तीन ही होते हैंअनुपलब्धि स्वभाव और कार्य । तत्रानुपलब्धिर्यथा- न प्रदेशविशेषे क्वचिदुपट उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलब्धेरिति । 1 उनमें से अनुपलब्धि इसप्रकार है जैसे - किसी विशेष स्थान में घट नहीं है। क्योंकि घटके उपलधिलक्षणप्राप्त होने पर भी उसकी वहां अनुपलब्धि है । ( घट स्वभाव से ही विद्यमान है । अर्थात् घटके अस्तित्वमें स्व. भाव के अतिरिक्त अन्य कारण नहीं है । अतएव घट उपलब्धि (मिलना ) लक्षण वाला है । घटमें उपलब्धिलक्षण है अतएव वह उपलब्धिलक्षणप्राप्त है । घटका उपलब्धिलक्षणप्राप्तपना उसकी उपलब्धिलक्षणप्राप्ति है । अनुपलब्धि न मिलनेको कहते हैं । ) 1

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