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' भूमिका
यहाँ यह शङ्का होती है कि जब आत्मा ही नहीं है तो मरण किसका होता है। उसका समाधान यह है कि बौद्ध वासतवमें मरण नहीं मानता किन्तु निरोध ( रुकना ) मानता है । बौद्ध प्राण आदिको मानता है किन्तु अनात्मवादी होनेसे न तो उनको सात्मक ही मानता है और न निरात्मक ही मानता है। जब तक विज्ञान आदि शरीरमें रहते हैं तब तक शरीर जीता है जब नहीं रहते तो मर जाता है। इस वासते प्राण आदि जीवित शरीर सम्बन्धी हैं। जैसा कि धर्मकीर्तिने कहा है
सात्मकत्वेन निरात्मकत्वेन वा प्रसिद्ध प्राणोदरसिद्धिः । (पृ० १०७ पं०१)। तथा 'तस्माज्जीवच्छरीरसम्बन्धी प्राणादिः'। (पृ० १०७ पं० २०)
(७) कर्मको अन्य दर्शनकारोंके समान बौद्धने भी अनित्व ही माना है। जैसा कि टीकामें कहा है___ 'साध्यविकलं कर्म तस्यानित्यत्वात् । पृ० १२२ पं० १०)"
(८) परमाणुको बौद्ध भी मूर्त मानता है। जैसा कि टीका में कहा है
'असर्वगतं द्रव्यपरिमाणं मूर्तिः । असर्वगताश्च द्रव्यरूपाश्च परमाणवः। (पृ० १२२ पं० १२)
(९) घटको अनित्य भी माना है और मूर्त भी माना है । जैसा . कि कहा है- . .. 'घटस्तूभयविकलः । अनित्यत्वान्मूर्तत्वाञ्च घटस्येति । (पृ०१२२
(१०) बौद्ध दर्शनमें जो पदार्थ विद्यमान हैं वह सब अनित्य हैं । जैसा कि धर्मकीर्तिने कहा है
'यत्सत्तत्सर्वमनित्यं यथा घटादिरिति'। (पृ० ६५५ ९)
(११) बौद्ध दर्शनमें साध्य और साधनको विलकुल अभिन्न मान कर उनका तादात्म्य सम्बन्ध माना है। उनमें भेद समारोप जनित है । जैसा कि कहा है_ 'साध्यसाधनयोस्तादात्म्यम् । समारोपितस्तु साध्यसाधनयोभेंदः' । (पृ० ७० पं०७) हमने न्यायबिन्दुके उपरोक्त वाक्योंमें से स्थूल सिद्धान्तोंको ही निकाला है । सूक्ष्म सिद्धान्तोंको निकालनेका काम अपने लिये असाध्य समझकर विशेष विद्वानोंके लिये छोड़ दिया है।
पं०१४)