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भूमिका
निबन्ध है जो कि विचारकर ऐसे ढंगसे लिखा गया है कि उसका प्रत्येक वाक्य सूत्र सा प्रतीत होता है। ___ न्यायबिन्दु टीकामे पृष्ठ ६९ पं० १६ में 'तस्यैवेति' पाठ है किन्तु उसका मूल उपलब्ध नहीं है । यद्यपि 'तस्यैव' को अगले वाक्पमें मिला देनेसे वह वाक्य (तस्यैव तत्स्वभावत्वात्स्वभावस्य च हेतुत्वात् ) पूरा हो जाता है तथापि चित्तमें यह खटका बना ही रहता है कि न जाने और कहाँ २ पाठ छूट गया हो।
न्यायबिन्दुसे प्रगट होता है कि आचार्य धर्मकीर्ति और धर्मोत्तर दोनों अन्य भारतीय दर्शनोंके भी धुरन्धर विद्वान् थे। क्योंकि दृष्टान्तामासके वर्णन तथा अन्य ऐसे ही स्थलों पर उन्होंने थोड़े। शब्दोंमें अन्य दर्शनोंके सिद्धान्तोंका अच्छा वर्णन किया है। ___ आचार्य धर्मकीर्तिने न्यायबिन्दु पृ० १२६ पं० १८ तथा पृ० १२८ पं० १९ में जैनियोंके तीर्थंकर ऋषभका उल्लेख दोनों स्थल पर तथा वर्धमानका उल्लेख प्रथम स्थलपर किया है। इससे प्रगट होता है कि उनके समय आठवीं शताब्दीमें भी जैनेतर विद्वान् जैनधर्मका प्रथम उपदेश देने वाला भगवान् ऋषभदेवको ही समझते थे न कि भगवान् वर्धमानको । जैनधर्मका प्रथम उपदेष्टा भगवान् महावीर या पार्श्वनाथको कहने की धारणा पाश्चात्य ऐतिहासिकोंके ही मस्तिष्ककी उपज विदित होती है। ___ न्यायबिन्दु जैसा क्लिष्ट ग्रन्थ है वैसीही प्रचुर संख्यामें इसकी टीकार्य नहीं मिलती। यद्यपि टीकायें इसकी भी कम नहीं बनीं तथापि उनमेंसे अधिकांश का मूल संस्कृत लप्त हो गया है, केवल उनका तिब्बी अनुवाद शेष है। न्यायविन्दुको निम्नलिखित काय बनी हैं
१.न्यायबिन्दुपिण्डार्थ-आचार्यजिनमित्र (लगभग १०२५ ई०) . कृत । इसमें न्यायबिन्दुका सारांश है।
२. न्यायबिन्दुपूर्वपक्ष संक्षिप्त-आचार्य कमलशील (लगभग ७५० ई०) कृत । इसमें न्यायबिन्दुकी समालोचनाओंका संक्षेप है। . ३-धर्मोत्तरटिप्पणक-श्वेताम्बर जैन आचार्य मल्लवादिन ( लग भग ८२७ ई० ) कृत । धर्मोत्तरकृत न्यायबिन्दु टीका की टीका । यह अनहिलवाड़ा पाटनमें ताड़पत्र पर लिखी हुई रखी है। . . . . .
४-न्यायाधन्दुटीका-आचार्य विनीतदेव ( लगभग ७०० ई.) कृत, यह न्यायविन्दुके ऊपर विस्तृत टीका है। . ........