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भूमिका हां, जैन नैयायिकोंमें हेतुके भेद वौद्धोसे भी अधिक किये हैं। किन्तु विषयान्तर हो जानेसे हम यहाँ केवल बौद्धोंके ही हेतुके भेदोंपर विचार करेंगे। ___ यह पीछे दिखलाया जा चुका है कि बौद्धोंने हेतुके तीन भेद माने हैं
स्वभाव, कार्य और अनुपलब्धि। . . जो पदार्थ उपलब्ध हैं वह अनुपलब्ध नहीं हो सकते अतएव उपलब्ध होना पदार्थका स्वभाव है। स्वभाव लिङ्गम पदार्थों की यह उपलब्धि ही हेतु रूपमें उपस्थित की जाती है । जैसे-'यह वृक्ष है, क्योंकि यह शीशम है। - कार्यलिङ्ग अनुमेय ( साध्य ) के कार्यको देखकर उसकी उपलब्धिका अनुमान करता है। जैसे किसीने धुआँ देखकर कहा कि-'यहाँ अग्नि है। क्योंकि यहाँ धुआँ है।' . पदार्थका न मिलना अनुपलब्धि है। बौद्धोंने इसको भी हेतु माना है। जैसे-देवदत्तको उसके घरमें अनुपस्थित देखकर कोई कहे'देवदत्त घरमें नहीं है। क्योंकि वह वहाँ अनुपलब्ध है।
इन तीनों हेतुओंमेसे स्वभाव और कार्य वस्तु की उपस्थिति और अनुपलब्धि अनुपस्थितिको साधन करते हैं।
इसके पश्चात् कुछ इन हेतुओंका ही वर्णन करके अनुपलब्धिके भेद बतलाकर द्वितीय परिच्छेद समाप्त किया गया है। अनुपलब्धिके भेदोंको हम विस्तारके भयसे यहां नहीं लिख रहे हैं।
तृतीय परिच्छेद। .. इस परिच्छेदमें परार्थानुमानका वर्णन है । आरंभमें उसकी परिभाषा दी हुई है, जिसका पीछे वर्णन कर आये हैं। इसके पश्चात् उसके साधर्म्यवत् और वैधर्म्यवत् दो भेद बतलाकर स्वयं ही कह दिया है कि इनमें अर्थसे कोई भेद नहीं है केवल प्रयोगका भेद है ( न्या० पृ०६३ पं०५)। अतएव इन दोनोंके विषयमें हम यहाँ कुछ नहीं लिखेंगे। . इन दोनों ही प्रयोगोंमें पक्षका अवश्य ही निर्देश किया जाना चाहिये। अतएव परार्थानुमानके भेदोंके पश्चात् पक्षका वर्णन किया मया है। जो कि लगभग सभी न्यायोंमें एक ही प्रकारसे कहा गया है। यहाँ सामान्य रूपसे परार्थानुमानका वर्णन समाप्त हो गया है।