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भूमिका
अर्थात् जो ज्ञान अनुमेयमें (न्या० पृ० ३३ ) त्रिरूपलिङ्गसे उत्पन्न होता है उसे स्वार्थानुमान कहते हैं ।
तथा त्रिरूपलिङ्गका कहना परार्थानुमान है ।
यद्यपि इन लक्षणोंसे स्वार्थानुमानका ज्ञानरूप तथा परार्थानुमान का वचन रूप होना स्पष्ट है तथापि इन दोनोंका एक लक्षण हो सकता था। क्योंकि यद्यपि यह दोनों ज्ञान तथा वचन रूप हैं तथापि दोनों ही त्रिरूपलिङ्गसे उत्पन्न होते हैं । अतएव आचार्य धर्मकीर्ति अथवा धर्मोत्तर अनुमानका लक्षण 'त्रिरूपलिङ्गत्वमनुमानम्' कर सकते थे । जैसा कि प्राचीन न्यायके नये ग्रन्थ सिद्धान्तमुक्तावली, तर्कभाषा तथा तर्कसंग्रहकारने भी किया है । इन सबने ही ज्ञानात्मक स्वार्थानुमान तथा वचनात्मक परार्थानुमान माना है । तथापि 'लिङ्गपरामर्श' दोनोंमें समान होनेसे इन्होंने 'लिङ्गपरामर्शो ऽनुमानम्' अनुमानका लक्षण कहा है।
जैनियोंका अनुमानका लक्षण इन सबसे अधिक परिष्कृत है वह यह है
'साधनात्साध्यविज्ञानमनुमानम्' ( परीक्षामुखसूत्र उद्देश ३ सूत्र ९ ) अर्थात् साधन या हेतुसे साध्यका ज्ञान होना अनुमान है। इसमें यह बात ध्यान रखने योग्य है कि जैनी ज्ञानको हो अनुमान मानते हैं। परार्थानुमान भी उनके यहाँ ज्ञान रूप ही है । अन्तर दोनों अनुमानोंमें केवल इतना ही है कि स्वार्थानुमान बिना किसीके उपदेशके अनुमाता ( अनुमान करने वाला ) स्वयं करता है । किन्तु परार्थानुमानका ज्ञान अनुमाताको दूसरेके बचनसे होता है । आचार्य धर्मकीर्तिका भी परार्थानुमानसे सम्भवतः यही आशय था किन्तु उस समय योग्य शब्द स्मरण न आनेसे वह सीधे आचार्य दिग्नागके पीछे ही चले गये । क्योंकि परार्थानुमानके लक्षणकी पुष्टिमें उन्होंने हेतु यह दिया है 'कारणे कार्योपचारात्' ( न्या० पृ० ६१ ) 4 अर्थात् यहाँ कारण 'वचन' में कार्य 'ज्ञान' का उपचार करलेनेसे वचन ही परार्थानुमान माना गया है ।
ऐसा विदित होता है कि अनुमानके स्वार्थ और परार्थभेद बौद्ध: नैयायिकोंके आविष्कार थे। क्योंकि न तो उनका सिद्धसेन दिवाकर (संगभग ४८० - ५५० ई० ) से पहिलेके जैन न्यायके ग्रन्थोंमें ही उल्लेख है और न न्याय दर्शनमें ही है । विरुद्ध इसके न्याय दर्शन