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भूमिका
उसके और ही पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट नामके तीनर भेद उपलब्ध होते हैं। . ऊपर न्यायविन्दुकथित स्वार्थानुमानका लक्षण कहा जा चुका है। यदि सूक्ष्म दृष्टिसे विचार किया जावे तो बौद्धोका 'तत्र स्वार्थ त्रिरूपाल्लिङ्गाद्यदनुमेये शानं तदनुमानम्' और जैनियोंका 'साधना त्साध्यविज्ञानमनुमानम्' एक ही बात है। क्योंकि अनुमेय साध्य होता ही है ( न्या० पृ० ३३ पं० १४) और त्रिरूपलिङ्ग भी हेतुके अतिरिक्त और कुछ नहीं है । जैसा कि न्यायबिन्दुके बहुतसे स्थलोंसे प्रगट होता है। इसी वास्ते स्वार्थानुमानके लक्षणके पश्चात् न्यायबिन्दुमें पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व और विपक्षा.
व्यावृत्ति नामक त्रिरूपलिङ्गका वर्णन किया गया है। यदि विस्तारसे कहना हो तब तो मध्यकालीन नैयायिकोंके समान इनमें अबाधितविषयत्व और असत्प्रतिपक्षत्त्व और बढ़ाये जा सकते हैं किन्तु बौद्धोंने तीन ही रूप रखकर हेतुका कथन किया है। इस अवसर पर हमको फिर जैनियोंका हेतुका लक्षण स्मरण हो आता है जो इनसे अधिक परिष्कृत, संक्षिप्त तथा युक्तिपूर्ण है । वह यह है__'साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतुः' । (परीक्षामुख उद्देश ३ सूत्र १५) " अर्थात् जिसका साध्य (अनुमेय) के साथ आविनाभावी सम्बन्ध निश्चित हो वह हेतु होता है।
वास्तवमें विचार किया जावे तो त्रिरूपलिङ्ग अविनाभावनियम अथवा व्याप्तिके अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
इस प्रकार न्यायबिन्दुकारने हेतुके लक्षणका वर्णन करके फिर उसके भेदोका वर्णन किया है। किन्तु उन बेचारोको अपना अभिप्राय प्रगट करने योग्य पर्याप्त शब्द यहाँ भी नहीं मिले हैं। क्योंकि कभी वह पक्षधर्मत्व आदिको त्रिरूपलिङ्ग कहते हैं तथा कभी वह हेतुके भेद अनुपलब्धि, स्वभाव लिङ्ग और कार्यलिङ्गको त्रिरूपलिङ्ग कहते हैं । इसी मुसीबतमें पड़ जानेसे उन्होंने त्रिरूपलिङ्गको एक स्थानपर 'त्रैरूप्य' ( न्या० पृ. ३० पं०१६) तथा दूसरे स्थान पर भेदोको 'त्रिरूपलिङ्ग' कहा है (न्या० पृ० ३५ पं० १०) ... अब थोड़ा विचार बौद्धोंके इन तीनों हेतुओंपर भी करलें। प्राचीन नैयायिकोंने तो हेतुके भेद करनेपर विशेष ध्यानही नहीं दिया है।