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भूमिका
अभिलषित ( Implied ) साध्यके (जिस समय साध्य अनिश्चित अथवा संदिग्ध हो) विपरीत होनेको पृथक् हेत्वाभास माना है जिसको उन्होंने इष्टविघातकृत् विरुद्ध नाम दिया है। किन्तु धर्मकोति ने अपने ग्रन्थ न्याय बिन्दु में इस सम्मतिको यह कह कर अग्राह माना है कि दूसरा विरुद्ध हेत्वाभास पृथममें हीं गर्भित हो जाता है। (तत्र च तृतीयोऽपि इष्टविघातकृत्विरुद्धः ?"स इह कस्मान्नोक्ता अनयोरेव अन्तर्भावात् । अयं च विरुद्धः आचार्यदिग्नागेनोक्तः । स कस्मात् वार्तिकारककारेणं सता त्वया नोक्तः । न्या० पृष्ठ १०३, १०४ भाषा पृ० २५) इष्टविद्यात्कृत् विरुद्धका एक उदाहरण दिया जाता है
नेत्र आदि दूसरेके उपयोगके वासते हैं। क्योंकि वह संघात रूप हैं। जैसे-शयन, आसन आदि। - यहाँ साध्य दूसरेके वासते अनिश्चित या संदिग्ध है । क्योंकि वह संघात ( उदाहरणके लिये शरीर ) और असंघात ( उदाहरणके लिये जीध ) दोनोंको ही बतला सकता है। यदि वक्ता 'दूसरेके लिये' शब्दको असंघात अर्थमें प्रयोग करे जिसको श्रोता संघात अर्थमें समझ जाये तो उस समय साध्य हेतुके विरुद्ध हो जावेगा। उस समय वह हेतु इष्टविघातकृत् विरुद्ध कहलाता है।
धर्मकीर्तिने अपने ग्रन्थ न्यायबिन्दुमें इसको पहिले विरुद्धका ही उदाहरण माना है। क्योंकि अनुमान वाक्यमें प्रयोग किये हुए साध्य वाचक शब्दका एक ही अर्थ हो सकता है। और यदि कहे हुए और समझे हुए अर्थोमें सन्देह हो तो प्रकरणसे पहिले वासतविक अर्थ निश्चय कर लेना चाहिये । यदि प्रयोग किया हुआ अर्थ वासतविक होगा तो साध्या और हेतुमें स्वाभाविक विरोध होगा।
विरुद्धाव्यभिचारी। ". दिग्नागने एक और हेत्वाभास 'बिरुद्धव्यभिचारी भी माना है। जिसको उसने सन्देहका कारण कहा है। यह ऐसे स्थानपर होता है जब दो विरुद्ध परिणाम एक ही हेतु ( Valid truth reasons.) से पुष्ट किये जाते हैं। उदारणके लिये-एक वैशेषिक दार्शनिक कहता है - .
शब्द अनित्य है क्योंकि वह उत्पन्न होता है। SA-मीमांसक उत्तर देता है+..... .. ... ... ... ... ... .