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भूमिका
रूपान्तर है। अतएव मुख्य न्याय तीन ही हैं। गौतमीय न्याय, जैन न्याय और बौद्धन्याय । किन्तु इससे यह न समझ लेना चाहिये कि अन्य दर्शनकारोंने न्यायपर कुछ लिखा ही नहीं। क्योंकि उनके ग्रन्थों में भी न्यायके बहुतसे अङ्गोंपर बहुत कुछ प्रकाश मिलता है। ___ आचार्य धर्मकीर्तिने न्यायविन्दुको तीन परिच्छेदोंमें विभक्त किया है। जिनमेसे पुथम परिच्छेदमें प्रत्यक्ष, द्वितीयमें स्वार्थानुमान
और तृतीयमें परार्थानुमानका वर्णन है। आचार्य धर्मोत्तरने इसी क्रमको अनुसरण करते हुए इसके ऊपर एक विस्तृत टीका बनाई है जो कि पाठकोंके हाथमें है। । यद्यपि यह टीका बहुत अच्छी है और इसमें प्रत्येक बातको भलीप्रकार समझाया है तथापि यह टीका अपने असली रूपमें केवल उन्हींके कामकी रह गई है जो बौद्ध दर्शनके विद्वान् हैं। क्योंकि यदि गौतमीय और जैन न्यायके कोई विद्वान् विना सौद्ध दर्शनका अभ्यास किये इसको स्वयं पढना चाहे तो उनके लिये भी इसका पढ़ना बहुत कष्ट साध्य है। क्योंकि इसमें कुछ ऐसे बौद्ध परिभाषिक शब्द आगये हैं जिनका अर्थ लाख प्रयत्न करनेपर भी बिना बतलाये हुए समझमें नहीं आ सकता। हमने इस त्रुटिको यथाशक्ति अपनी संस्कृत टिप्पणी और भाषाटीकामें दूर करनेका प्रयत्न किया है। किन्तु यह कहना कठिन है कि हम इस प्रयत्नमें कहाँ तक सफल हुए हैं।
अब हमको यह देखना है कि न्यायबिन्दुके पथक् २ परिच्छेदोंमें क्या कहा गया है
पथमपरिच्छेद। हम पीछे कह आये है कि प्रमाण सामान्य एक दार्शनिक विषय है अतएव पृथम यहाँ उसीके लक्षणपर विचार किया जाता है
सांख्यदर्शनमें कहा है. 'द्वयोरेकतरस्य वाप्यसन्निकृष्टार्थपरिच्छित्तिः पुमा तत्साधकतमं यत्तत् त्रिविधं प्रमाणम् ।' अध्याय १ सूत्र ८७।। । अर्थात् असनिकृष्ट ( पुमातामें अपाप्त ) अर्थका निश्चय करना पुमा है। वह पुमा चाहे बुद्धि और पुरुष दोनों की धर्म हो, अथवा बुद्धिकी ही धर्म हो, अथवा पुरुषकी ही धर्म हो । जो उस पुमाका साधकतम ( फलका एकमात्र और अभिन्न कारण ) हो वह पमान होता है। वह तीन प्रकारका है।