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भूमिका
स्थविर बुद्धपालित, ३चन्द्रकीर्ति, ४देवशर्मा, ५गुणश्री, ६गुणमति, ७स्थिरमति और भव्य ( या भाव विवेक ) |
उपर्युक्त चारोंदार्शनिक सम्प्रदायोंके साथ ही साथ बौद्ध जनता में न्यायके अध्ययनका भी विकाश होने लगा । अब चारों ही सम्प्र दायों के नेता अपने सिद्धान्तके मंडन और दूसरोंके सिद्धान्तके खंडन के लिये न्यायको उपयोगी समझने लगे । जैसा कि माध्यमिक सम्प्र दायके नागार्जुन, और आर्यदेव तथा योगाचार सम्प्रदायके मैत्रेय, असंग और वसुबन्धुके लेखोंसे स्पष्ट है। अपने पक्षके मण्डन और पर रक्षके खण्डन करनेके लिये उपयोगकी हुई युक्तियोंने अक्षपादके प्राचीन न्यायका प्रचार और बौद्धोंमें बहुतसे नैयायिकोंको उत्पन्न कर दिया ।
बौद्धोंमें न्यायके ऊपर विस्तारसे प्रथम विचार करने वाला माध्यमिक सम्प्रदायका प्रवर्तक आर्य नागार्जुन यह था महाकौशल देशके विदर्भ 'नगर में आन्ध्र राजा सद्वाह अथवा सातवाहनके समय उत्पन्न हुए थे । इन्होंने कृष्णा नदीके तटपर श्रीपर्वतकी गुफा में बहुत सा समय ध्यान करनेमें व्यतीत किया था । ये 'शरह' के शिष्य थे। कहा जाता है कि इन्होंने एक बड़े शक्तिशाली राजा भोजदेवको बौद्ध बनाया था । बौद्धग्रन्थों के अनुसार यह बुद्धके निर्वाणके ४०० वर्ष पश्चात् अथवा ईसासे ३३ वर्ष पूर्व हुए थे । किन्तु म. म. डाक्टर सतीशचन्द्र विद्याभूषणकी सम्मतिमें इनका समय कुछ पीछे है। इन्होंने अपनी माध्यमिक कारिकामें प्राचीनन्यायके परिभाषिक शब्द पुनरुक्त, सिद्धसाधन, साध्यसम और परिहारका प्रयोग और अक्षपादके सिद्धान्त प्रमाणके दीपकके समान स्वपर प्रकाशकत्वका निराकरण किया है । इन्होंने अपने ग्रन्थ विग्रहव्यावर्तनीकारिकामें भी अक्षपादके सिद्धान्तकी समालोचना की थी । प्रमाण विटेतन या प्रमाणविध्वंसन और उपायकौशल्यहृदयशास्त्र इनके न्याय पर स्वतन्त्र ग्रन्थ हैं । किन्तु इनपर प्राचीन न्यायका पूरा प्रभाव पड़ा हुआ है । क्योंकि इनमें इन्होंने नैयायिकों के १६ पदार्थ माने हैं | कार्यहेतु स्वभावहेतु, और अनुपलब्धि हेतुका बर्णन भी इन्होंने किया है ।
आर्यदेव ( लगभग ३२० ई०) मैत्रेय ( लगभग ४०० ई ) आर्य असंग ( लगभग ४०५ - ४७० ई० तक ) और वसुबन्धु ( लगभग ४१० से ४९० तक ) ने भी बौद्धन्याय पर स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखे हैं ।