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भूमिका स्वरूप यह ग्रन्थ हैं। इसमें चार अध्याय है-जिनमेसे प्रथममें स्वार्थानुमान, द्वितीयमें प्रमाणसिद्धि, तृतीयमें प्रत्यक्ष और चतुर्थमें परार्थ वाक्यका वर्णन है।
२ प्रमाणवार्तिकवृत्ति-यह प्रमाणवार्तिककारिकाकी टीका है। इसका भी मूल लुप्त होकर तिब्बी अनुवाद ही शेष है। ..३ प्रमाणविनिश्चय-इसमें न्यायबिन्दुके ही समान प्रत्यक्ष, स्वर्थानुमान और परार्थानुमान नामके तीन परिच्छेद हैं। इसका भी सम्भवतः मूल लुप्त और तिब्बी अनुवादही शेष है । . . .
४ न्यायबिन्दु-यह ग्रन्थ पाठकोंके सामने है। इसका वर्णन आगे किया जावेगा।
५ हेतुबिन्दुविवरण-इसमें तीन अध्याय हैं, जिनमें क्रमसे स्वभावहेतु, कार्यहेतु, और अनुपलब्धिहेतु का वर्णन किया गया है।
६ तर्कन्याय या वादन्याय-मूल इसका भी सम्भवतः लुप्त ही है। ७ सन्तानान्तरसिद्धि८ सम्बन्धपरीक्षाऔर ९ सम्बन्धपरीक्षा वृत्ति-यह सम्बन्ध परीक्षाकी टीका है।
(४) धर्मकीर्तिकी संप्रदाय । यद्यपि धर्मकीर्तिके विषयमें ऊपर (इस छोटीसी भूमिकामें ) कम नहीं लिखा गया तथापि उसकी सम्प्रदायको जाने बिना यह विषय अधूरा ही रह जाता है । इस विषयमें सब एक मत हैं कि वह माध्यमिक नहीं था क्योंकि माध्यमिक दर्शन शून्यवाद है और धर्मकीर्तिके ग्रन्थोंमें स्थान २ पर अनेक पदार्थ देखनेमें आते हैं। अतएव माध्यमिक न होनेसे वह या तो वाह्यार्थास्तित्ववादी (सौत्रान्तिक और धैभाषिक ) ही हो सकता है या विज्ञानाद्वैतवादी ( योगाचार) ही हो सकता है । अवएव अब हम इसीपर विचार करेंगे कि वह इन दोनों से किस मतका अनुयायी था। : यह पीछे दिखलाया जा चुका है कि धर्मकीर्ति धर्मपालका शिष्य था और यह भी बतला दिया गया है कि धर्मपाल योगाचार (विज्ञानाद्वैतवाद) मतावलम्बी था। अतएव जो मत गुरुका हो वही शिष्यका भी होना चाहिये। किन्तु न्यायबिन्दुमे स्थान पर ऐसे वाक्य आये हैं जिनसे बाह्य अर्थका अस्तित्व स्पष्ट प्रतीत होता है। उदाहरण के लिये पेसे कुछ वाक्य दिये जाते हैं- ..... ...