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भूमिका
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यह आचार्य ( धर्मकीर्ति ) और तिब्बतका राजा स्त्रोत्संगम्पो समकालीन कहे जाते हैं, जो कि प्रमाणरूपमें माना जा सकता है ।
धर्मकीर्तिका समय ।
इस कथन में यह स्पष्ट है कि धर्मकीर्ति धर्मपालका शिष्य था । और इस वासते कि धर्मपाल ६३५ ई० में जीवित था ( जैसा कि हुएनसांग के लेखों से स्पष्ट है ) तो धर्मकीर्ति भी उस समयके लगभग अवश्य रहा होगा । यह समय धर्मकीर्तिके राजा स्त्रोत्संगम्पो का समकालीन होनेके भी अविरुद्ध है, जो ६२७-६९८ तक जीवित रहा । ऐसा प्रतीत होता है कि ६३५ ई० में धर्मकीर्ति बहुत छोटा था, क्योंकि हुएनसांगने उसका नाम नहीं लिया है। इसके विरुद्ध इत्सिंग, जिसने भारतमें ६७१-६९५ ई० तक यात्राकी दिग्नागके पश्चात् 'धर्मकीर्तिने न्यायमें आगे कैसे उन्नति की' का वर्णन प्रभावपूर्ण शब्दों में करता है । धर्मकीर्तिने ब्राह्मण नैयायिक उद्योतकर पर आक्षेप किया है, इसके विरुद्ध वृहदारण्यकवार्तिक के रचयिता मीमांसक सुरेश्वराचार्य और असहस्रीके रचयिता दिगम्बर जैन विद्यानन्दिने धर्मकीर्ति कृत प्रत्यक्षके लक्षणकी समालोचना की है । धर्मकीर्ति अन्य ग्रन्थोंमें केवल कीर्ति भी कहा गया है । वाचस्पतिमिश्र ने भी धर्मकीर्तिकी समालोचना करनेके लिये उनका नाम लिया है ।
धर्मकीर्तिकी रचनायें ।
धर्मकीर्तिने निम्नलिखित ग्रन्थ बनाये
१. प्रमाणवार्तिककारिका -- यह ग्रंथ मूल संस्कृतमें तो लुप्त है । किन्तु इसका तिब्बी भाषामें अनुवाद मिलता है । इस ग्रन्थके बनाये जानेकी कथा भी बड़ी रोचक है। कहते हैं कि एक दिन धर्मकीर्ति दिग्नागके शिष्य ईश्वरसेनके यहां गये। वहां इन्होंने दिग्नागका प्रमाणसमुच्चय सुना । धर्मकीर्ति उसको प्रथम बार सुननेसे ईश्वरसेनके समान उस ग्रन्थके विद्वान् बनगये । उन्होंने उसको दोबारा फिर सुना इस बार वह दिग्नाग के समान बन गये । और तीसरी बार सुनने पर उन्होंने उसमेंकी कई गलतियां निकालीं । उन्होंने वह अशुद्धियां ईश्वरसेमको बतलायीं । जिसने गुरुनिन्दापर अप्रसन्न होनेके स्थानमें उनसे एक समालोचनात्मक टीका बनानेको कहा। उसी परिश्रमका फक