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भूमिका
किन्तु इनके ग्रन्थों पर भी प्राचीन न्यायका पूरा प्रभाव देखनेमें आता है। ये ग्रन्थकार बौद्धन्यायकी आदिम अवस्थाके थे।
सारांश यह है कि ईसासे पूर्व छटी शन्तादीमें बौद्ध धर्मकी स्थापनासे ईसाकी चौथी शताब्दीमें इसका चार दार्शनिक संप्रदायोंमें विकाश होने तक बौद्धन्यायके ऊपर कोई भी क्रमबद्ध (Systematic) ग्रन्थ नहीं था। केवल दार्शनिक और धार्मिक ग्रन्थोंमें न्यायका यतः ततः आभास देखनेमें आताथा । नागार्जुनने लगभग ३०० ई० के न्यायपर एक स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखा। किन्तु यह केवल प्राचीन न्यायके सिद्धान्तोंकी आलोचना मात्र थी। ई० ४०० से ५०० तक मैत्रेय असंग और वसुबन्धुने भी न्यायको चलाया, किन्तु उनका लेख केवल आकस्मिक ( Incidental ) था। क्योंकि वह योगाचार और वैभाषिकके सिद्धान्तोंसे मिला हुआ था। हुएनसांगके बतलाये हुए वसुबन्धु कृत तीनों ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं। अतएव उनके विषयमें कुछ भी नहीं कहा जा सकता। ४५० ई० से वह समय आया जब न्याय साधारण दर्शनसे विलकुल प्रथक हो गया। और बहुतसे बौद्ध लेखकोका ध्यान इधर पूर्णरूपसे आकर्षित हुआ। इनमें दिग्नागका नम्बर सबसे पहिला है। .. दिग्नागको आधुनिक बौद्धन्यायका पिता कहना अनुचित न होगा। क्योंकि अधिकांश बौद्धन्यायके सिद्धान्तोकी नींव इसीने डाली है। उन्होंने नालन्द, उड़ीसा, महाराष्ट्र, और दक्षिण (मदरास) की यात्रा की थी। ये जहाँ गये वहाँ इनको अपने विरोधियोंसे शास्त्रार्थ ही करना पड़ा। उनका सम्पूर्ण जीवन चोटें करने और सहने में ही व्यतीत हुआ। उनके मरने पर भी कालीदास, उद्योतकर, वाचस्पतिमिश्र, मल्लिनाथ, कुमारिल भट्ट और पार्थसारार्थ मिश्रने उनके ऊपर कम आक्रमण नहीं किये । वेदान्ती और जैनी भी उनपर आक्रमण करनेसे न चूके । यहाँ तक कि बौद्धसाधु धर्मकीर्तिने भी उनका विरोध करनेका प्रयत्न कर ही डाला। दिग्नागके ग्रन्थोंसे उनकी सार्वतोमुखी प्रतिभाका खूब परिचय मिलता है। प्रमाणसमुच्चय, न्यायप्रवेश, हेतुचक्रहमरु, प्रमाणसमु. श्चयवृत्ति, प्रमाणशास्त्र न्यायप्रवेश, आलम्बन परीक्षा, आलम्बन परीक्षावृत्ति, और त्रिजालपरीक्षा इनके न्यायपर स्वतन्त्र ग्रन्थ हैं । इन मे से इनका प्रमाणसमुश्चय सबसे प्रधान है और यही बौद्धन्यायका पथप्रदर्शक है । इसमें छह अध्याय हैं-(१) प्रत्यक्ष, (२) स्वार्था