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जीव अधिकार
(मालिनी) जयति जगति वीरः शुद्धभावास्तमारः
त्रिभुवनपूज्य: पूर्णबोधैकराज्यः। नतदिविजसमाज: प्रास्तजन्मद्रुबीजः
समवसृतिनिवास: केवलश्रीनिवासः ।।८।। मग्गो मग्गफलं ति यदुविहं जिणसासणे समक्खादं।
मग्गो मोक्खउवाओ तस्स फलं होइ णिव्वाणं ।।२।। इसप्रकार इस मंगलाचरण और प्रतिज्ञा संबंधी गाथा में आचार्यदेव ने वीतरागी-सर्वज्ञ भगवान महावीर को नमस्कार करके, केवली और श्रुतकेवलियों द्वारा कथित सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का प्रतिपादक नियमसार नामक शास्त्र लिखने की प्रतिज्ञा की है।।१।।
इस गाथा की टीका के उपरान्त टीकाकार एक कलश काव्य लिखते हैं, जिसमें गाथा के समान ही भगवान महावीर की स्तुति की गई है। कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(रोला) शुद्धभाव से नाश किया है कामभाव का।
तीन लोक में पूज्य देवगण जिनको नमते।। ज्ञान राज्य के राजा नाशक कर्मबीज के।
समवशरण के वासी जग में वीर जिनेश्वर||८|| जिन्होंने अपने शुद्धभावों से कामविकार का अभाव किया है, तीन लोक के लोगों द्वारा जो पूज्य है, ज्ञान ही जिनका राज्य है, देवों का समाज जिन्हें नमस्कार करता है, जन्मरूपी वृक्ष का बीज जिन्होंने नष्ट कर दिया है, समवशरण में जिनका निवास है और जिनमें केवलदर्शन-ज्ञानरूपी लक्ष्मी का निवास है; वे वीर भगवान जगत में जयवंत वर्ते।
जिन वीर भगवान को मंगलाचरण संबंधी मूल गाथा में आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने नमस्कार किया है; उसी गाथा की टीका लिखने के उपरान्त टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव कलश के माध्यम से उन्हीं वीर भगवान का जय-जयकार कर रहे हैं। कह रहे हैं कि जगत में वे वीर भगवान जयवंत वर्ते; जिन्होंने अपने शुद्धभावों से कामविकार को जीत लिया है, जो सर्वदर्शी-सर्वज्ञ भगवान समवशरण में विराजमान हैं और तीन लोक के द्वारा पूजे जाते हैं।।८।।
मगलाचरण के तत्काल बाद इस दूसरी गाथा में ही आचार्यदेव मोक्ष और मोक्षमार्ग की चर्चा आरंभ कर देते हैं।