Book Title: Niyamsara
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 9
________________ जीव अधिकार अथ सूत्रावतारः ह्र णमिऊण जिणं वीरं अणंतवरणाणदंसणसहावं । वोच्छामि णियमसारं केवलिसुदकेवलीभणिदं । ।१ ॥ नत्वा जिनं वीरं अनन्तवरज्ञानदर्शनस्वभावम् । वक्ष्यामि नियमसारं केवलिश्रुतकेवलिभणितम् । । १ । । इसप्रकार टीकाकार पद्मप्रभमलधारिदेव मंगलाचरण, टीका करने की प्रतिज्ञा, ग्रन्थ की विषयवस्तु और अपनी स्थिति स्पष्ट करने के उपरान्त अन्त में लिखते हैं ह्र अधिक विस्तार से बस हो, बस हो । साक्षात् यह विवरण जयवंत वर्ते । तात्पर्य यह है कि टीकाकार अब इस चर्चा से विराम लेते हैं; क्योंकि इस संबंध में अधिक बात करने से क्या लाभ है ? अब तो मूल ग्रन्थ की चर्चा का अवसर है। आचार्य कुन्दकुन्दकृत मूल ग्रन्थ नियमसार के मंगलाचरण और प्रतिज्ञावाक्य संबंधी इस प्रथम गाथा की उत्थानिका में टीकाकार पद्मप्रभमलधारिदेव ने मात्र इतना ही कहा है ह्र "अब गाथा सूत्र का अवतरण होता है । " समयसार की आत्मख्याति टीका में आचार्य अमृतचन्द्रदेव ने भी प्रथम गाथा की उत्थानिका में इन्हीं शब्दों का प्रयोग किया है। लोक में 'अवतार' शब्द की महिमा अपार लिए भगवान के अवतार के अर्थ में होता है। ९ गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न । इस शब्द का प्रयोग लोककल्याण के टीकाकार पद्मप्रभमलधारिदेव भी उक्त पद के माध्यम से यह कहना चाहते हैं कि यह नियमसार नामक शास्त्र लोककल्याणकारी महान शास्त्र है, भागवत शास्त्र है। ( हरिगीत ) वर नंत दर्शनज्ञानमय जिनवीर को नमकर कहूँ। यह नियमसार जु केवली श्रुतकेवली द्वारा कथित ॥१॥ अनंत और उत्कृष्ट है ज्ञान-दर्शन जिनका अर्थात् जिनको केवलज्ञान और केवलदर्शन प्रगट हो गये हैं; उन भगवान महावीर को नमस्कार करके मैं केवली और श्रुतकेवली द्वारा कहा गया नियमसार कहूँगा । इस मंगलाचरण की गाथा में वीतरागी सर्वज्ञ भगवान महावीर को नमस्कार करके नियमसार शास्त्र लिखने की प्रतिज्ञा की गई है ।

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