Book Title: Niyamsara
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 7
________________ जीव अधिकार किंचह्न (आर्या) गुणधरगणधररचितं श्रुतधरसन्तानतस्तु सुव्यक्तम् । परमागमार्थसार्थं वक्तुममुं के वयं मन्दाः ।।५।। अपि च ह्न (अनुष्टुभ् ) अस्माकं मानसान्युच्यैः प्रेरितानि पुनः पुनः। परमागमसारस्य रुच्या मांसलयाऽधुना ।।६।। नियमसार नामक शास्त्र की तात्पर्यवृत्ति टीका लिखने की प्रतिज्ञा करने के उपरान्त अब आगामी छन्दों में अपनी लघुता प्रगट करते हुए मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव लिखते हैं ह्न (दोहा) गुणधर गणधर से रचित श्रुतधर की सन्तान | परमागम का कथन हम कैसे करें बखान ||५|| परमागम की पुष्ट रुचि प्रेरित करे अनल्प। इसीलिये यह लिख रहे और न कोई विकल्प||६|| गणों को धारण करनेवाले गणधरों से रचित और श्रतधरों की परम्परा से भलीभाँति व्यक्त किये गये इस परमागम के अर्थसमूह का कथन करनेवाले मन्दबुद्धि हम कौन होते हैं? यद्यपि गणधरादि श्रुतकेवलियों द्वारा निरूपित परमागम का अर्थ करने में हम जैसे मन्दबुद्धि लोग समर्थ नहीं हैं; तथापि इस समय हमारा मन इस परमागम के सार की पुष्ट रुचि से बारम्बार प्रेरित हो रहा है। यही कारण है कि हम इस तात्पर्यवृत्ति टीका लिखने के लिए उद्यत हुए हैं। आचार्य भगवंतों द्वारा ग्रंथों की रचनायें किसी न किसी की प्रेरणा से की जाती रही हैं। किसी रचना का बाह्य में कोई प्रेरक न भी रहा हो, तब भी परहित की भावना तो प्रेरक बनती ही रही है; किन्तु इस टीका की रचना किसी की प्रेरणा से नहीं की गई है; अपितु नियमसार में प्रतिपादित विषयवस्तु में मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव का मन ऐसा रमा कि उनसे यह टीका सहजभाव से बन गई है। तात्पर्य यह है कि उन्होंने यह कार्य मात्र अपने आनन्द के लिए ही किया है। यहाँ एक प्रश्न संभव है कि एक ओर चौथे छन्द में तो यह कहा गया है कि भव्यों की मुक्ति और अपने आत्मा की शुद्धि के लिए यह टीका लिखी जा रही है, वहीं दूसरी ओर इन

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