Book Title: Niyamsara Author(s): Hukamchand Bharilla Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 6
________________ ६ अनुष्टुभ् ) अपवर्गाय भव्यानां शुद्धये स्वात्मन: पुन: । वक्ष्ये नियमसारस्य वृत्तिं तात्पर्य्यसंज्ञिकाम् ॥४॥ गुणों की चर्चा तक नहीं की गई है। इसका कारण यह प्रतीत होता है कि टीकाकार मुनिराज अपने साक्षात् गुरु वीरनन्दि का नामोल्लेखपूर्वक स्मरण करना चाहते थे। गुरुओं को नमस्कार करने संबंधी मंगलाचरण के तीसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्र ( हरिगीत ) सिद्धान्तलक्ष्मी के पती श्री सिद्धसेन यतीन्द्र को । तर्काम्बुजों के सूर्य श्री अकलंकदेव मुनीन्द्र को ॥ शब्दसागर चन्द्रमा श्री पूज्यपाद यतीन्द्र को । आढ्य इनसे करूँ वन्दन वीरनन्दि व्रतीन्द्र को ॥३॥ नियमसार श्रेष्ठ सिद्धान्तरूपी लक्ष्मी के पति मुनिराज सिद्धसेन, तर्करूपी कमल को प्रस्फुटित करनेवाले सूर्य भट्टाकलंकदेव, शब्दशास्त्ररूपी समुद्र को वृद्धिंगत करनेवाले चन्द्रमा पूज्यपाद देवनंदी और सिद्धान्त, तर्क और व्याकरण ह्न इन तीनों विद्याओं से समृद्ध मेरे साक्षात् गुरु श्री वीरनंदी मुनिराज की मैं वन्दना करता हूँ । इसप्रकार हम देखते हैं कि गुरुओं को स्मरण करनेवाले इस छन्द में सिद्धान्तशास्त्र के ज्ञाता आचार्य सिद्धसेन, न्यायशास्त्र के प्रतिष्ठापक आचार्य अकलंकदेव, शब्दशास्त्र (व्याकरण) के ज्ञाता आचार्य पूज्यपाद और उक्त तीनों के ज्ञाता आचार्य वीरनन्दी की वन्दना की गई है । ३॥ मंगलाचरण में देव-शास्त्र - गुरु की वंदना करने के उपरान्त अब इस चौथे छन्द में मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव नियमसार नामक इस शास्त्र की टीका लिखने की प्रतिज्ञा करते हैं। छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र (दोहा) भव्यों का भव अन्त हो निज आतम की शुद्धि | नियमसार की तात्पर्य वृत्ति कहूँ विशुद्ध ॥४॥ भव्यजीवों की मुक्ति के लिए और अपने आत्मा की शुद्धि के लिए मैं इस नियमसार नामक शास्त्र की (संस्कृत भाषा में) तात्पर्यवृत्ति नामक टीका कहूँगा (लिखूँगा ) । इसप्रकार इस छन्द में स्वपरकल्याण के लिए इस तात्पर्यवृत्ति नामक टीका को लिखने की प्रतिज्ञा की गई है, संकल्प किया गया है ॥४॥Page Navigation
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