Book Title: Naishadhiya Charitam 02 Author(s): Mohandev Pant Publisher: Motilal Banarsidass View full book textPage 9
________________ द्वितीयसर्गः धर्मशास्त्रेषु विहितमेव, यथाऽऽह याज्ञवल्क्यः -'अयाचिताहृतं ग्राह्यमपि दुष्कृत-कर्मणः / हि यतः स प्रतिग्रहः अयाचित-वस्तूपहारः दानमिति यावत् ईषत् ऊनः करः इति कर कल्पं हस्तसदृशमित्या अन्यः जन इति जनान्तरम् ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतात् ( ब० वी० ) शुचितः शुद्धात् शुमादिति यावत् विधेः भाग्यात् स्त्रया प्रापि प्राप्तः / अहं न तव हितं करोमि प्रत्युत ते शुभावहो विधिरेव जनमिमम् निजहस्तीकृत्य मन्माध्यमेनेति यावत् तत्र हितं करोतीति त्वयैतन्न परिहर्तव्यमिति मावः // 12 // ' व्याकरण-उपनम्र उप+/नम्+रः। करकल्प-कर+कल्यप् / जनान्तरम् -अन्यः जन इति मयूरव्यंसकादित्वात् निपातित / प्रापि प्र+आप+लुङ ( कर्मवाच्य ) / . अनुवाद-बिना माँगे प्राप्त हुई हितकर वस्तु का परित्याग करना तुम्हारे लिए मी उचित नहीं क्योंकि वह प्रतिग्रह ( हित-दान ) दूसरे व्यक्ति को ( अपना ) हाथ-जैसा बनाये, शुभ-कारक विधाता से तुम्हें प्राप्त हुआ है // 12 // टिप्पणी-यहाँ श्लोक को उत्तरार्धगत बात का पूर्वार्धगत बात का कारण होने से काव्यलिन और करकल्प में उपमा है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। पतगेन मया जगत्पतेरुपकृत्यै तव किं प्रभूयते / इति वेद्मि न तु त्यजन्ति मां तदपि प्रत्युपकर्तुमर्तयः // 13 // अन्वयः-पतगेन मया जगत्पतेः तव उपकृत्यै प्रभूयते किम् ? इति ( अहं ) वेद्मि, तदपि अर्तयः प्रत्युपकतुंम् माम् न तु त्वजन्ति / टीका-पतगेन पक्षिणा मया हंसेन जगत: पत्युः (10 तत्पु० ) सार्वभौमस्य तव उपकृत्य उपकाराय प्रभूयते पार्यते किम् ? नेति काकुः। सर्वसाधनसम्पन्नस्य तवोपकारकरणे निस्साधनस्य तुच्छपक्षिणो मम नास्ति क्षमतेत्यर्थः इति अहं वेनि जानामि, तदपि तथापि अर्तयः पीडाः यास्त्वया निव. र्तिताः प्रत्युपकर्तु तव प्रत्युपकारं विधातुं माम् न तु नैव त्यजन्ति मुञ्चन्ति, तव प्रत्युपकाराय प्रेरयन्तीत्यर्थः // 13 // व्याकरणपतगः पतन् ( उत्प्लवन् ) गच्छनीति पतत् + गम् +डः। उपकृतिः उप+V कृ+क्तिन् ( भावे ) / प्रभूयते प्र+VS+लट् ( भाववाच्य ) / अति अद्+क्तिन् मावे ) / अनुवाद-मुझ पक्षि द्वारा ( भला ) जगत के पति तुम्हारा उपकार किया जा सकता है क्या ? यह मैं जानता हूँ, तथापि पीड़ायें (जिनसे तुमने मुझे छुटकारा दिया है ) तुम्हारा प्रत्युकार करने हेतु मुझे छोड़ ही नहीं रहीं हैं // 13 // टिप्पणी-यहाँ काव्यलिङ्ग, तथा 'तु' 'त' में छेक एवं अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। अचिरादुपकर्तुराचरेदथ वात्मौपयिकीमुपक्रियाम् / पृथुरिस्थमथाणुरस्तु सा न विशेषे विदुषामिह ग्रहः // 14 // अन्वयः-अथवा ( जनः ) उपकर्तुः अचिरात् आत्मौपायिकीम् उपक्रियाम् आचरेत् / इत्थं सा पृथुः अथ अणुः अस्तु इह विशेषे विदुषाम् ग्रहः न ( मवति ) // 14 //Page Navigation
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