Book Title: Naishadhiya Charitam 02 Author(s): Mohandev Pant Publisher: Motilal Banarsidass View full book textPage 8
________________ नैषधीयचरिते अनुवाद-अपने दुर्बल कुल को खा जाने वाले मत्स्यो को, अपने घौसलों वाले वृक्षों की बुराई करने वाले पक्षियों को ( तथा ) निरपराध तण को चट कर जाने वाले मृगों का वध करते हुए राजा लोगों का आखेट पाप के लिए नहीं होता। टिप्पणी-यहाँ मत्स्य आदि के वध का कारण बताने से काव्यलिङ्ग अलंकार है, एक हो/हन् क्रिया का अनेक कारकों से सम्बन्ध होने से क्रिया-दोपक मी है। 'मृगा' 'मृग' में छेक और वन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। यदवादिषमप्रियं तव प्रियमाधाय नुनुत्सुरस्मि तत् / कृतमातपसंज्वरं तरोरभिवृष्यामृतमंशुमानिव // 11 // अन्वयः-(हे राजन् ! ) तव यत् अपियम् ( अहम् ) अबादिषम् , प्रियम् आधाय तत् तरोः कृतम् आतर-संवरम् अमृतम् अभिमृष्य अंशुमान् इव नुनुत्सुः अस्मि / टोका-(हे राजन् !) तर ते यत् अप्रियं निन्दादिकम् ( अहम् ) अवादिषम् अकथयम् , प्रियम् इष्टम् आधाय विधाय तत् अप्रियम् तरोः वृक्षस्य कृतम् आतपेन धर्मेण संज्वरं संतापं पीडामिति यावत् ( तृ० तत्पु०) अमृतं जलम् ('पयः कोलालममृतम्' इत्यमरः) अभिवृष्य वर्षिया अंशुमान् सूर्य इव ( अहम् ) नुनुत्सुः नोत्तुमिच्छुः दूरीकर्तुमिच्छुरिति यावत् अस्मि / यथा सूर्यो निजातपेन वृक्ष प्रपीड्य पश्चात् वृष्टिद्वारा तत्पीडामपनयति, तथैवाहमपि पूर्व त्वां भृशमाक्रुश्येदानी तत्पमार्जनरूपेण तब प्रियं कर्तुमिच्छामीति भावः // 11 // ___ व्याकरण-प्रवादिषम् वद्+लुङ् / प्राधाय आ+/धा+ल्यप् / अमिवृष्य अभि+ Vवृष् +ल्यप् / नुनुस्सुः नु+सन् +उः। अनुवाद-(हे राजन् ! ) तुम्हें मैंने जो अप्रिय बातें कहीं, ( तुम्हारा ) प्रिय ( कार्य) करके मैं (भब ) उसका निराकरण अर्थात् प्रभार्जन करना चाहता हूँ ठीक उसी तरह जैसे कि सूर्य वृक्ष के प्रति आतप द्वारा की हुई पीड़ा का जलवृष्टि करके निराकरण कर दिया करता है // 11 // टिप्पणी-विद्याधर ने यहाँ दृष्टान्त और उपमा अलकार माना है, किन्तु हमारे विचार में यहाँ दृष्टान्त नहीं है, उपमा ही है / साहित्यदर्पणकार के अनुसार समान धर्म तीन प्रकरण का होता है-शान्द आर्थ और प्रणिधान-गम्य / यहाँ तीसरा है, क्योंकि हंस और सूर्य के विभिन्न धर्मों का यहाँ दृष्टान्त की तरह बिम्ब-प्रतिबिम्ब माव हो रहा है। बिम्ब-प्रतिबिम्ब माव को ही प्रणिधानगम्य सादृश्य कहते हैं / 'प्रियं' 'प्रिय' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। उपनम्रमयाचितं हितं परिहतुं न तवापि सांप्रतम् / करकल्पजनान्तराद्विधेः शुचितः प्रापि स हि प्रतिग्रहः // 12 // अन्वयः-अयाचितम् उपनम्रम् हितम् , परिहर्तुम् तव अपि न साम्प्रतम् , हि स प्रतिग्रहः करकल्प-जनान्तरात् शुचितः विधेः ( त्वया) प्रापि / टीका-अयाचितम् अप्रार्थितम् उपनम्रम् उपनतं प्राप्तमित्यर्थः हितं प्रियं वस्तु परिहतुं परित्यक्त तव राशोऽपि सतः न साम्प्रतं युक्तम् ( 'युक्ते द्वे साम्प्रतं स्थाने' इत्यमरः ) अयाचितोपनतवस्तुग्रहणंPage Navigation
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