Book Title: Naishadhiya Charitam 02
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 6
________________ नैषधीयचरिते दुलारने पुचकारने में ( अपने ) विश्वास में लिया हुआ (राजा को ) अत्यधिक कुतूहल में डाले हुए प्रतीत होता था // 7 // टिप्पणी-यहाँ 'नु' शब्द उत्प्रेक्षा का वाचक है, इसलिए उत्प्रेक्षा अलंकार बना रहा है। 'भुज' शब्द की एक से अधिक वार आवृत्ति होने से छेक न होकर वृत्त्यनुप्रास ही होगा। 'ल. का-क', 'तु तू' आदि में भी वृत्त्यनुप्रास है। नृपमानसमिष्टमानसः स निमज्जत्कुतुकामृतोर्मिषु / अवलम्बितकर्णशष्कुलीकलसीकं रचयत्नवोचत // 8 // अन्वयः-इष्ट-मानसः स कुतुकामृतोमिषु निमज्जन् नृप-मानसम् अवल. 'सीकम् रचयन् अवोचत / टोका-इष्टं प्रियम् मानसं मानस-सरोवरः (कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः (ब० बी० ) स हंसः कुतुकं कौतूहलम् एव अमृतम् पीयूषम् अथ च जलम् ( कर्मधा० ) तस्य कर्मिषु तरङ्गेषु (प० तत्पु०) निमज्जत् ब्रूडत् नृपस्य राशो नलस्य मानसम् मनः (10 तत्पु०) अवलम्बिते गृहीते ( कर्मधा० ) कर्णयोः श्रोत्रयोः शष्कुल्यौ छिद्रे ( 10 तत्पु.) एव कलस्यौ घट्यौ ( कर्मधा० ) येन तथाभूतम् (ब. बी०) रचयन् कुर्वन् अवोचत अब्रवीत् / अन्योऽपि कस्मैचित् जले निमज्जते अवलम्बनार्थ घट ददाति, यमालम्ब्यासौ तीरदेशम् आयाति / कौतुकनिमग्नं नलं हंसः कर्णाभ्यां स्ववचनं श्रोतुं सावधानीकरोतीत्यर्थः // 8 // व्याकरण-इष्ट + क्तः। निमज्जत् नि+/मज्ज+शनृ ( द्वि० नपुं० ) / अवलम्वित अव+/लम्ब्+क्तः। मानसम् मन एवेति मनस् +अण ( स्वार्थे ) / अनुवाद-मानस ( सरोवर ) से प्रेम रखने वाला वह ( हंस ) कौतुक-रूपी अमृत को तरंगों में डूबते जा रहे राजा ( नल ) के मानस ( मन ) को कर्णछिद्र-रूपी कलसों का सहारा लेने वाला बनाता हुआ बोला / / 8 // टिप्पणी-नल के हाथ में आये हुए हंस ने उसके मन में इतना अधिक कुतूहल उत्पन्न कर दिया कि वह उत्सुकता के साथ अपने कान खड़े कर बैठा कि देखें यह क्या बोलने जा रहा है। इस बात को देखिए कवि किस तरह रूपक का अप्रस्तुत-विधान दे रहा है। मानस (सरोवर) हंस को प्रिय है। इधर देखो तो मानस ( राजा का मन ) डूबता जा रहा है। सन्मित्र की तरह झट हंस ने उसे डूबने से बचाने हेतु दो खालो धड़े दे डाले। कौतुकामृत बना अमृत ( जल ) और कर्ण-छिद्र बने दो खाली घड़े। इस तरह यह श्लिष्ट साङ्ग-रूपक बना। 'मानस' 'मानस' और 'कुली' 'कुल' में छेकानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। मृगया न विगीयते नृपैरपि धर्मागममर्मपारगैः।। स्मरसुन्दर ! मां यदत्यजस्तव धर्मः स दयोदयोज्ज्वलः // 9 // अन्वयः-धर्मागम पारगैः, अपि नृपैः मृगया न विगोयते / हे स्मरसुन्दर। त्वम् माम् यत् प्रत्यजः, स तव दयोदयोज्ज्वलः धर्मः /

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