Book Title: Munisuvratasvamicarita
Author(s): Chandrasuri, Rupendrakumar Pagariya, Yajneshwar S Shastri, R S Betai
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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१६
सुनने के लिए उसके पास गया। कार्तिक सेठ की इस धार्मिक दृढ़ता पर वह अत्यन्त क्रुद्ध हुआ। उसने कार्तिक सेठ को हर प्रकार से अपमानित करने का निश्चय किया। वह इसके लिए उपयक्त अवसर की खोज करने लगा।
एक समय जितशत्र राजा ने मास खमन के पारण के लिए संन्यासी को अपने घर निमन्त्रित किया। संन्यासी ने राजा से कहलवाया कि अगर कार्तिक सेठ मझे भोजन परोसेगा तो मैं आपके घर पारणा करूंगा । राजा ने सेठ को बुलाकर उसे संन्यासी को भोजन परोसने की आज्ञा दी। राजाज्ञा को मानकर कार्तिक सेठ संन्यासी को भोजन परोसने लगा। भोजन परोसते हए कार्तिक सेठ का वह बार बार तिरस्कार करता था।
संन्यासी से तिरस्कृत कार्तिक सेट सोचने लगा यदि मैं दीक्षित होता तो मुझे यह विडंबना न सहन करनी पड़ती।
दूसरे दिन जब उसे भगवान् मनिसुव्रत के आगमन का समाचार मिला तो वह एक हजार वणिकों के साथ भगवान् की सेवा में पहुंचा और प्रव्रज्या ग्रहण कर आत्मसाधना करने लगा। बारह वर्ष तक चरित्र का पालन कर वह मरकर सौधर्मेन्द्र बना। संन्यासी मरकर सौधर्मेन्द्र का वाहन ऐरावत हाथी बना। पूर्व जन्म का वैर स्मरण कर ऐरावत इधर उधर भागने लगा तो इन्द्र ने वज्र के प्रहार से उसे अपने वश में कर लिया।
हस्तिनापुर से विहार कर भगवान भगकच्छ पधारे। वहाँ जितशत्र राजा राज्य करता था। भगवान क समवसरण हुआ। देशना सुनने के लिए जितशत्रु राजा घोड़े पर चढ़कर आया। राजा समवसरण में गया घोड़ा बाहर खड़ा रहा। घोड़े ने भी कान ऊँचे कर प्रभु का उपदेश सुना । उपदेश समाप्त होने पर गणधर ने भगवान् से पूछा-भगवन् ! इस समवसरण में किसने धर्म प्राप्त किया? प्रभु ने उत्तर दिया-जितशत्रु राजा के घोड़े ने धर्म प्राप्त किया है। जितशत्र राजा ने पूछा-यह घोड़ा कौन है ? और उसकी आपके धर्म के प्रति श्रद्धा कैसे हुई ? भगवान् ने अश्व के पूर्व जन्म का वृत्तान्त सुनाते हुए कहा---
पद्मिनीखण्ड नगर में जिनधर्म नामक श्रेष्ठ रहता था। उसका सागरदत्त नामका मित्र था। एक बार सागरदत्त जिनधर्म के साथ साधु के उपाश्रय में गया वहाँ उसने उपदेश में सुना कि 'जो स्वर्ण का जिन बिम्ब बनाता है वह भवसागर को पार करता है। इस उपदेश से उसने एक विशाल स्वर्ण का जिन बिम्ब बनवाया और बड़े आचार्य से उसकी प्रतिष्ठा करवाई। जिनधर्म का अनुरागी होते हुए भी उसमें मिथ्यात्व अवशेष था। अपने द्वारा उपार्जित विशाल धनसम्पत्ति के प्रति उसमें मूर्छा भाव था। वह त्यागमार्ग को अपना नहीं सका। अन्त में मर कर वह तुम्हारा यह घोड़ा बना। पूर्वभव में जिनधर्म के प्रति अनुराग होने से इसे मेरे उपदेश से बोध प्राप्त हुआ। राजा ने घोड़े को वन्दन कर उसे मुक्त कर दिया। घोड़ा भी श्रावक के व्रतों को पालता हुआ समाधि पूर्वक मरा । तब से भृगुकच्छ नगर अश्वावबोध नामक तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध हुआ।
एक दिन भगवान भगकच्छ में ही विराजमान थे तव सहसा पृथ्वी कांप उठी। धरतीकंप से राजा और प्रजा दोनों भयभीत हो गई। राजा भगवान के पास आया और उसने वन्दन कर पूछा--"भगवन्' पृथ्वी क्यों काँप रही है ? क्या इसमे कोई अनर्थ होनेवाला है ?" भगवान् ने कहा-“राजन् ! पृथ्वी कम्प का कारण मुनो--
कुरुदेश में हस्तिनापुर नाम का नगर है। वहाँ पद्मोत्तर राजा की रानी ज्वाला ने दो पूत्रों को जन्म दिया। एक का नाम विष्णु और दूसरे का नाम महापदम । विष्णुकुमार ने युवावस्था में सुव्रताचार्य का उपदेश सुनकर दीक्षा ग्रहण की और महापद्म चक्रवर्ती बना। विष्णुकुमार मुनि ने दीक्षा लेने के पश्चात् घोर तपस्या शुरू की। तपस्या से उन्हें विविध प्रकार की लब्धियाँ प्राप्त हई। ... नमुचि नामका प्रधान सुव्रताचार्य से शास्त्रार्थ में हार गया। वह अपमानित होकर अपने नगर से निकला । और महापद्म चक्रवर्ती से जा मिला । महापद्म ने उसे प्रधान पद पर नियुक्त किया। उसके कार्य से प्रसन्न होकर महापद्म
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