Book Title: Munisuvratasvamicarita
Author(s): Chandrasuri, Rupendrakumar Pagariya, Yajneshwar S Shastri, R S Betai
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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१४
पुत्र गिरि को राजगद्दी पर अधिष्ठित कर दीक्षा ग्रहण की और आत्मकल्याण किया । गिरि राजा के बाद उसका पुत्र मित्रगिरी राजा बना । मित्रगिरी के वंश में अनेक पराक्रमी एवं धार्मिक राजा हरिवंश कूल में हए ।
नौवां भव-- भगवान मुनिसुव्रत
जम्बूद्वीप नाम के भरत क्षेत्र में कुशाग्रपुर नाम का अत्यन्त रमणीय नगर था । इसी नगर में चन्द्र जैसे समुज्ज्वल हरिवंशकुलोत्पन्न सुमित्र नाम का प्रतापी राजा राज्य करता था। उसकी पद्म जैसी कोमल एवं अत्यन्त रूपवती पद्मावती नाम की रानी थी। श्रीवर्मकुमार का जीव प्राणतकल्प से च्यत हो कर रानी पद्मावती के गर्भ में श्रावणी पूणिमा के दिन श्रवण नक्षत्र के योग में प्रविष्ट हआ। सूख शय्या पर सोयी हई रानी पद्मावतीदेवी ने तीर्थकर के जन्म सूचक १४ महास्वप्नों को अपने मख में प्रवेश करते देखा ।
गर्भकाल के समाप्त होने पर जेठ वदी अष्टमी के दिन श्रवण नक्षत्र में कर्म लांछन वाले श्यामवर्णी पुत्र को महारानी ने जन्म दिया । तब छप्पन दिककूमारियां आठ अधोलोक से आठ ऊर्ध्व लोक से आठ आठ रूचक पर्वत की चारों दिशाओं से चार मध्यवर्ती स्थान से चार रूचक द्वीप के केन्द्र से सिंहासन कम्पित होने पर वहां आयीं और जन्मकल्याणक उत्सव सम्पादित किया । शक भी विमान में बैठकर तीव्र गति से वहां पहुंचा और प्रभ को गोद में लेकर देवों से परिवत हआ सुमेरु पर्वत पर गया। प्रभ को गोद में लेकर शक अतिपाण्डुकवला पर रखे सिंहासन पर बैठ गया । तब अच्युतादि इन्द्रों ने समुद्र, नदी व सरोवर से लाए जल से प्रभु को स्नान करवाया। तदुपरान्त सौधर्मेन्द्र ने प्रभु को ईशानेन्द्र की गोद में देकर स्फटिक वृष के शंग से निकलते जल से प्रभु का अभिषेक किया । इसके पश्चात् प्रभु के शरीर को पोंछकर गोशीर्ष चन्दन का विलेपन किया । फिर वस्त्रालंकार और श्रेष्ठ पुष्पों से उनकी पूजा कर उनकी स्तुति की ।
स्तुति के पश्चात् शक्र प्रभु को लेकर उनकी माता के समीप पहँचा और प्रभु को माता के पार्श्व में सुलाकर प्रणाम किया। तीर्थकर माता की अवस्वापिनी निद्रा दूर कर तीर्थकर बिम्ब को वहां से हटाकर शक इन्द्र स्वनिवास लोट गया और अन्यान्य इन्द्र मेरुपर्वत से ही स्व-स्थान को चले गये ।
राजा सुमित्र ने भी पुत्र का जन्मोत्सव विया । चारणमुनि ने स्वप्न का फल बताया था अतः बालक का नाम मुनिसुव्रत रखा । शक्र द्वारा अंगुष्ठ में भरा अमृत-पान कर प्रभु बढ़ने लगे । बाल्यकाल को अतिक्रम कर भगवान यौवन अवस्था को प्राप्त हए । यद्यपि वे इन्द्रियों के विषय में अनासक्त थे तब भी माता-पिता के अनरोध से उन्होंने विवाह किया। श्रेष्ठ विषय सुखों को भोगते हए उन्हें सुव्रत नामक पुत्र हुआ। साढ़े बावीस हजार वर्ष गृहस्थावस्था में रहने के बाद भगवान ने दीक्षा लेने का निश्चय किया। लोकान्तिक देवों ने भी आकर भगवान से दीक्षा लेने के लिए निवेदन किया। भगवान ने वर्षिदान दिया। देवों द्वारा सजाई गई अपराजिता नाम की शिबिका पर आरूढ़ होकर भगवान नीलगुहा नाम के उद्यान में आये । वहां फाल्गुन शुक्ला १२ के दिन श्रवण नक्षत्र में दिवस के अन्तिम प्रहर में एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा ग्रहण की । भगवान को मन:पर्यव ज्ञान उत्पन्न हुआ । देवादि सभी उन्हें प्रणाम कर स्व-स्व स्थान को लोट गये। तीसरे दिन भगवान ने कुशाग्रपुर के गृहपति ब्रह्मदत्त के घर खीर से पारणा किया । वहां पांच दिव्य प्रकट हए ।
ग्यारह माह तक छद्मभस्थ अवस्था में रहने के बाद भगवान नीलगुहा उद्यान में पधारे । वहां चंपक वृक्ष के नीचे ध्यान करते हुए फाल्गुन कृष्ण द्वादशी के दिन श्रवण नक्षत्र में घातीकर्म का क्षय कर भगवान ने केवल ज्ञान प्राप्त किया । इन्द्रों ने आकर भगवान का केवल ज्ञान उत्सव मनाया । समवसरण की रचना हुई । समवसरण में बैठकर भगवान ने धर्मदेशना दी । इन्द्रादि देवों ने तथा महाराजा सुव्रत ने अपने परिवार एवं नगर-निवासियों के साथ धर्मदेशना सूनी । धर्म देशना सूनकर अनेक नर-नारियों ने भगवान के पास दीक्षा ग्रहण की । देशना के
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