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प्रास्ताविक : ९
वसुनन्दि श्रावकाचार ग्रंथ के अन्त में दी गई प्रशस्ति के आधार पर ही आचार्य वसुनन्दि के विषय में मुख्यतः जानकारी मिलती है। आचार्य कुन्दकुन्द की परम्परा में श्रीनन्दि नामक आचार्य हुए हैं। उनके शिष्य नयनन्दि और उनके शिष्य नेमिचन्द के प्रसाद से वसुनन्दि के इस ग्रन्थ की रचना की । प्रशस्ति में ग्रंथ-रचना का समय नहीं दिया । किन्तु वसुनन्दि के दादा गुरू (नयनन्दि) ने वि० सं० ११०० में सुदंसण चरिउ (सुदर्शन चरित) नामक ग्रंथ अपभ्रंश में लिखा । इस आधार पर कुछ विद्वान् आचार्य वसुनन्दि का समय १२वीं शती का पूर्वार्द्ध अथवा ११वीं का अन्तिम भाग मानते हैं। किन्तु इनके ग्रन्थों की भाषा, शैली और विषय प्रतिपादन आदि के अध्ययन से ज्ञात होता है कि ये इस काल से भी पूर्व के आचार्य थे। इनके समय-निर्धारण की दिशा में शोध की आवश्यकता है । मूलाचार की इनकी इस वृत्ति के प्रारम्भ में उल्लेख है कि आचारांग की पदसंख्या अठारह हजार प्रमाण थी, उसका संक्षेप आचार्य वट्टकेर ने किया और उस पर इन्होंने बारह हजार श्लोक प्रमाण आचारवृत्ति लिखी। इनके नाम से प्रकाश में आने वाले ग्रन्थों में मूलाचार वृत्ति के अतिरिक्त आप्तमीमांसा वृत्ति, जिनशतकटीका, प्रतिष्ठासारसंग्रह, उपासकाध्ययन (वसुनन्दि श्रावकाचार) आदि प्रसिद्ध हैं।
मूलाचार के एक और व्याख्याता आचार्य सकलकीति हैं। इन्होंने इसके आधार पर 'मूलाचार-प्रदीप' नामक संस्कृत भाषा में विस्तृत ग्रंथ लिखा। इनका समय विक्रम की १५वीं शती माना जाता है । डा० विन्टरनिट्ज़ ने इनका स्वर्गारोहण लगभग १४६४ ई० माना है । ज्ञानार्णव की प्रशस्ति के अनुसार इन्होंने अपनी लीला मात्र से शास्त्रसमुद्र को भली प्रकार बढ़ाया। वैसे १९वीं शती में सकलकोति नामक एक दूसरे भट्टारक विद्वान् भी हुए हैं । किन्तु १५वीं शती के उपर्युक्त भट्टारक सकलकीति अद्भुत प्रतिभा के धनी और बहुशास्त्रवेत्ता थे। ज्ञानार्णव की ही प्रशस्ति के अनुसार आप भट्टारक पद पर आरूढ़ होते ही बड़ी आसानी से जैन साहित्य भंडार की श्रीवृद्धि में लग गये थे।५ इनकी लेखनी बहुमुखी रही है, अतः इन्होंने प्रायः सभी विषयों पर १. वसुनन्दि श्रावकाचार की प्रशस्ति, गाथा ५४०-५४४ २. प्रकाशक, आचार्य श्री विमलसागर संघ, c/o रायसाहब नेमीचन्द्र जैन,
बनारसी प्रेस, जलेसर (एटा) उ० प्र०, वि० सं० २०१८ ३. ए हिस्ट्री आफ इंडियन लिटरेचर, पृ० ५९२ ४. प्रशस्ति संग्रह-सं० पं० के० भुजबली शास्त्री, जैन सिद्धान्त भवन आरा,
१९४२, पृष्ठ ११९,१९६,१९७ ५. ज्ञानार्णव, प्रशस्ति पाठ १४ ।
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