Book Title: Mulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 536
________________ जैन सिद्धान्त : ४८५ पत्ता, पल्लव, पुष्प,फल, गुच्छा, गुल्म (करंज, कंथरादि), बेल, तृण तथा पर्वकाय (ईख, बेत आदि) ये सम्मूछिम वनस्पतियां भी प्रत्येक और अनन्तकाय हैं।' बेल, वृक्ष, तृण आदि वनस्पतियाँ तथा सभी प्रत्येक और साधारण वनस्पतियाँ हरितकाय होती हैं । श्वेताम्बर परम्परा के प्रज्ञापनासूत्र में प्रत्येककाय बादर वनस्पतिकायिक जीव के अन्तर्गत बारह भेद बतलाये हैं-वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता, बल्ली, पर्नग (पर्व वाले), तृण, वलय (केला आदि जिनकी छाल गोलाकार हो), हरित, औषधि, जलरुह (जल में पैदा होनेवाली वनस्पति), कुहणा (भूमिस्फोट)। इसी ग्रन्थ में इन बारहों के अनेक-अनेक भेदों का उल्लेख है जिनका अध्ययन वनस्पतिशास्त्र-विज्ञान की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इस विवेचन के आधार पर वनस्पति के दस प्रकार फलित हुए-मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल और बीज। . मूलबीज आदि वनस्पतियों के उपयुक्त भेदों के आधार पर वनस्पति कायिक जीवों के उत्पन्न होने के निम्नलिखित आठ प्रधान स्थान माने जा सकते हैं। (१) मूलबीज-जिसके मूल में बीज लगता हो या मूल ही जिनका बीज (उत्पादक भाग) हो, जैसे कन्द आदि । (२) अग्रबीज-जिस वनस्पति के सिरे पर बीज लगता हो अर्थात् आगे का हिस्सा ही जिनका बीज हो, जैसे कोरंटक ।। (३) पर्वबीज-गाँठ ही जिनका बीज हो, जैसे ईख आदि । (४) स्कन्द बीज-जिसके स्कन्ध या जोड़ ही बीज हो, जैसे थूहर आदि । (५) बीजरुह-जिस के मूल बीज में ही बीज रहता है जैसे गेहूँ आदि चौबीस प्रकार के अन्न । (६) सम्मछिम-जो वनस्पति अपने आप पैदा होती है । (७) तृण-तृण आदि घास रूप।। (८) बेल वनस्पति-चम्पा, चमेली, ककड़ी, खरबूजा आदि की लतायें । वस्तुतः वनस्पति जाति के दो प्रकार हैं-बीजोद्भव तथा सम्मूछिन । बीजोद्भव वनस्पति के अन्तर्गत मूलज, अग्रज, पर्वज आदि हैं । दूसरी सम्मूच्छिम १. मूलाचार ५।१७. २. वही, ५।२०. ३. प्रज्ञापना सूत्र पद २२... ४. मूलाचार वृत्ति ५।१६, दशवै० ४।८.. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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