Book Title: Mulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 554
________________ जैन सिद्धान्त : ५०३ ३. द्वीन्द्रिय के दो भेद-पर्याप्तक एवं अपर्याप्तक विकलेन्द्रिय के छह भेद ४. त्रीन्द्रिय के दो भेद-पर्याप्तक एवं अपर्याप्तक ___L५. चतुरिन्द्रिय के दो भेद-पर्याप्तक एवं अपर्याप्तक पंचेन्द्रिय के चार भेद । ६. ६. संज्ञी पंचेन्द्रिय के दो भेद-पर्याप्तक एवं अपर्याप्तक ६ [७. असंज्ञी पंचेन्द्रिय के दो भेद-पर्याप्तक एवं अपर्याप्तक इस प्रकार पर्याप्तक और अपर्याप्तक-जीव की इन दोनों अवस्थाओं के आधार पर जीवों की जो श्रेणियां बनती हैं उन्हीं के आधार पर जीव समास के ये चौदह भेद हुए। इनमें एकेन्द्रिय जीवों के अतिरिक्त किसी जीव में सूक्ष्म और बादर रूप से भेद नहीं है। क्योंकि एकेन्द्रिय के सिवाय और कोई जीव सूक्ष्म नहीं होते । प्रज्ञापनासुत्र में कहा है कि सूक्ष्म की कोटि में वे ही जीव लिए जाते हैं जो समूचे लोक में जमे हुए होते हैं। जिन्हें अग्नि जला नहीं सकती; तीक्ष्ण से तीक्ष्ण शस्त्र छेद नहीं सकते, जो अपनी आयु से जीते हैं और अपनी मौत से मरते हैं, पर जो इन्द्रियों द्वारा जाने नहीं जाते ।' बादर एकेन्द्रिय के एक जीव का एक शरीर हमारी दृष्टि का विषय नहीं बनता। हमें जो एकेन्द्रिय शरीर दिखते हैं, वे अपंख्य जीवों के असंख्य शरीरों के पिण्ड होते हैं । इसीलिए वे बादर हैं। चतुर्गतियों में जीवसमास : चार गतियों में से तिर्यञ्चगति में उपयक्त चौदह जीवसमास पाये जाते हैं । शेष नरक, मनुष्य और देव इन तीन गतियों में पंचेन्द्रियसंज्ञी पर्याप्त तथा पंचेन्द्रियसंज्ञी अपर्याप्त ये दो जीव समास हैं । इनमें तीसरा जीवसमास नहीं होता। एकेन्द्रिय जीवों में बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त और अपर्याप्त-ये चार जीवसमास है। विकलेन्द्रियों (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतरिन्द्रिय) में पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो-दो स्वकीय जीवसमास है । पंचेन्द्रियों में संज्ञी, असंज्ञी, पर्याप्त और अपर्याप्त ये चार जीवसमास हैं । लेश्याओं में जीवसमास :- कृष्ण, नील, कापोत-इन तीन अशुभ लेश्याओं में पूरे जोवसमास हैं । तेजोलेश्या में संज्ञीपर्याप्त और असंज्ञी अपर्याप्त ये दो, पद्म और शुक्ल इन दो लेश्याओं में संज्ञीपर्याप्त और संजीअपर्याप्त ये १. प्रज्ञापना, पद १, जैन दर्शन मनन और मीमांसा पृ० २२९. २. वही पृष्ठ २३०. ३. तिरियगदीए चोद्दस हवंति सेसासु जाण दो दो दु । एइंदिए सु चउरो दो दो विगिलिदिएसु हवे ॥ -कुन्द० मूलाचार १२।१५८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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