Book Title: Mulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 574
________________ जैन सिद्धान्त : ५२३ प्रकार आस्रव से नये-नये कर्म प्रविष्ट होते रहते हैं किन्तु संवर से नवीन कर्मों का प्रवेश रुक जाता है। तत्त्वार्थसूत्रकार ने भी कहा है आस्रवद्वार का निरोध करना संवर है। ८. निर्जरा: जिससे पूर्वबद्ध कर्मप्रदेश निर्जरित होते हैं वह निर्जरा है। कर्मों का झड़ना (खिरना) अर्थात् जीव (आत्मा) से संबद्ध कर्म प्रदेशों की हानि का नाम निर्जरा है। पूर्वकृत कर्मों का थोड़ा-थोड़ा अलग होना भी निर्जरा है । इस प्रकार शुभ योग की प्रवृत्ति से होने वाली आत्मा की आंशिक उज्ज्वलता का नाम निर्जरा है। निर्जरा के दो भेद है-विपाक निर्जरा तथा अविपाक निर्जरा ।। जैसे वनस्पतिफल योग्यकाल में पककर गिर जाते हैं वैसे ही योग्य काल में कर्म का उदय होकर जो निर्जरा होती है वह विपाकजा निर्जरा कहलाती है तथा जैसे पुरुष प्रयत्न के द्वारा समय से पहले ही फल को पका लेता है वैसे ही तपश्चरणादिक उपायों से अपक्व कर्मों को भी पकाकर उसका एकदेश नष्ट होना अवियाक निर्जरा है। इसे औपक्रमिक निर्जरा भी कहते हैं। ९. मोक्ष : सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप रत्नत्रय को मोक्ष का मार्ग माना गया है। इन तीनों की पूर्णता होने पर आत्मा कर्मों से मुक्त होकर पूर्ण विशुद्ध होता है। अतः जीव की स्वाभाविक शुद्ध अवस्था के प्रकट होने को ही मोक्ष कहते हैं। इसलिए कर्मबंधन से सदा के लिए मुक्ति को मोक्ष कहा है । सम्पूर्ण रूप से कर्मबन्ध के कारणों का अभाव तथा कर्मक्षय होने रूप निर्जरा के कारण पूर्णरूप से कर्मों का क्षय होना मोक्ष है । रागी जीव (राग-द्वेष द्वारा) कर्मों को बाँधता है और जब वह सकल कर्मों से रहित अर्थात् वीतरागता से १. आस्रवनिरोधः संवरः-तत्वार्थ सूत्र ९।१. २. (क) निर्जरणं निर्जरयत्यनया वा निर्जरा जीवलग्नकर्मप्रदेशहानि : -मूलाचार वृत्ति ५।६. (ख) पुवकदकम्मसडणं तु णिज्जरा-भ० आ० १८४७. ३-४. मूलाचार ५।४८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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