Book Title: Mulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 559
________________ ५०८ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन भेद हैं । भव्य और अभव्य भेद से भी जीव के दो भेद माने गये हैं । मार्गणाओं में जीवसमास और गुणस्थानों को खोजना चाहिए। क्योंकि मार्गणा शब्द का अर्थ ही अन्वेषण है । जैसे गवि मार्गणा के अन्तर्गत तिर्यञ्चगति में चौदह जीवसमास तथा शेष गतियों में पंचेन्द्रियसंज्ञी पर्याप्त तथा पंचेन्द्रियसंज्ञी अपर्याप्त—ये दो-दो जीवसमास है । इसमें तीसरा जीवसमास नहीं होता । इसी प्रकार मार्गणाओं में गुणस्थानों के अन्तर्गत देव और नारकों में चार, तिर्यञ्चगति में पाँच तथा मनुष्यगति में चौदह गुणस्थान होते हैं । इसी प्रकार विभिन्न मार्गणाओं में जीवसमास और गुणस्थानों का विभिन्न प्रकार से विधान किया जाता है । २. अजीव : जीव पदार्थ से विपरीत अजोव पदार्थ होता है । इसे अचेतन या जड़ पदार्थ भी कहते हैं । इसका विवेचन छह द्रव्यों के अन्तर्गत किया गया है । ३-४. पुण्य और पाप : नव पदार्थों में पुण्य तीसरा तथा पाप चौथा पदार्थ है । तत्त्वार्थसूत्रकार ने इन्हें अलग से न मानकर आस्रव और बंध तत्त्व में इन दोनों का अन्तर्भाव किया है। वस्तुतः मन, वचन और काय के शुभ कार्यों से पुण्य कर्म का आस्रव और बंध होता है । जो आत्मा को आत्मा पवित्र बने उसे पुण्य कहते हैं तथा पुण्य से जो प्रतिकूल है अर्थात् जो आत्मा को शुभ परिणामों से बचाने वाला है उसे योग से पुण्यकर्म का और अशुभ योग से बंधे हुए जो कर्म शुभ रूप से उदय में पुण्य और पाप के भेद से कर्मबंध को दो है - सम्यक्त्व, श्रुत ( श्रुतज्ञान), विरतिपरिणाम (पाँच महाव्रत तथा उत्तम क्षमादि पाप कहते हैं ।" पापकर्म का आस्रव आते हैं उन प्रकार का तत्त्वार्थसूत्र में शुभ माना गया है । 4 पुद्गलों का नाम पुण्य है । बतलाते हुए वट्टकेर ने कहा १. तसथावरा य दुविहा जोगगइकसाय इंदियविधीहि । बहुविध भव्वाभव्वा एस २. मूलाचार १२।१५७-१५९. आत्मा को सुख देने वाले पवित्र करें अथवा जिससे गदी जीवणिदेसे || मूलाचार ५।३०. ३. तत्त्वार्थसूत्र - पं० फूलचन्द शास्त्री द्वारा संपादित १1४, पृष्ठ १०. ४. पुनात्यात्मानं पूयतेऽनेनेति वा पुण्यम्, तत्प्रतिद्वन्दिरूपं पापं ॥ Jain Education International 'पाति रक्षत्यात्मानं शुभ परिणामात्' इति पापम् ॥ - तत्त्वार्थवार्तिक ६।३।४-५. ५. शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य -- तत्त्वार्थसूत्र ६ । ३. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596