Book Title: Mulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 571
________________ ५२० : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन शक्ति कुंठित हो जाती है । वस्तुतः यह कर्म राग-द्वेष और मोह का जनक है । इसे सभी कर्मों में प्रधान माना जाता है । क्योंकि इस कर्म का जब तक पूरा प्रभाव रहता है, तब तक आत्मा विवेक शून्य बनी रहती है। क्रोधादि चारों कषायें इसी के उदय से होती हैं। इसके दो भेद हैं-दर्शनमोह और चारित्र मोह ।' दर्शनमोह जीव को अपने स्वरूप का यथार्थ दर्शन नहीं होने देता अर्थात् यह सम्यक् दृष्टि को विकृत करने वाला होता है तथा चारित्र मोह के उदय से जीव सांसारिक वस्तुओं में से किसी को अपने अनुकूल जानकर उसमें राग करता है और किसी को बुरा जानकर उससे द्वेष करता है। ___ ५, आयुकर्म-जीवन (प्राण) को टिकाये रखने वाला कर्म । (जिस भव में गति में जन्म लिया है उसमें) कुछ काल प्राणधारण किये रखना आयुकर्म का स्वभाव है । आत्मा को किस शरीर में कितनी कालावधि तक रहना है यह निश्चय करना इसका कार्य है । चार गतियों की दृष्टि से इसके चार भेद हैं-(१) नरकायु-जिस कर्मोदय से जीव नरकों में दीर्घकाल तक रहता है उसे नरकायु कहते हैं । (२) त्रिर्यञ्चायु-त्रिर्यञ्चगति में टिके रहने के निमित्त कर्म पुद्गल । (३) मनुष्यायु-मनुष्यगति में टिके रहने के निमित्तभूत कर्म पुद्गल । (४) देवायुदेवगति में टिके रहने के निमित्तभूत कर्म पुद्गल । ६. नामकर्म-नारकी, पशु, मनुष्य, देव आदि रूप नाम रखना नामकर्म का स्वभाव होता है। आत्मा को विभिन्न शरीरावयव रूप उत्पन्न करने वाले कर्म को भी नामकर्म कहते हैं। जैसे कोई चित्रकार विभिन्न रंगों से विभिन्न चित्र बनाता है ठीक वैसे ही नामकर्म विभिन्न परमाणुओं से जीवों के शरीर की रचना करता है। शुभ नामकर्म से अच्छी गति, सुन्दर शरीर आदि प्राप्त होते हैं तथा अशुभ नाम कर्म से नीचगति, कुरूप शरीर आदि प्राप्त होते हैं । इसकी बयालिस पिण्ड प्रकृतियाँ हैं । गति, जाति, शरीर, बन्धन, संघात, संस्थान, संहनन, आंगोपांग, वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श, आनुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, विहायोगति, स्थावर, त्रस, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्तक, साधारण, प्रत्येक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुभंग, आदेय, अनादेय, सुस्वर, दुःस्वर, यशःकीर्ति, अयशःकीर्ति, निर्माण (निमान) और तीर्थंकर ।' इन बयालिस भेदों में एक-एक की अपेक्षा से नामकर्म के तिरानवें भेद होते हैं । . १. मोहणीयं च । दसणचरित्तमोहं-मूलाचार १२।१८९. २. णिरयाऊ तिरियाऊ माणुसदेवाण होति आउणी । मूलाचार १२।१९३. ३. वही, १२।१९३-१९६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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