Book Title: Mulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 562
________________ जैन सिद्धान्त : ५११ कारण वह हजारों दुःख प्राप्त करता है। राग, द्वेष, मोह, पाँच इन्द्रिय तथा आहार, निद्रा, भय और मैथुन-ये चार संज्ञायें, ऋद्धि, रस और-सात ये तीन गारव तथा कषायों के साथ मन, वचन और काय का योग होने पर आत्मा में कर्मों का आस्रव होता है । आस्रव के भेद :-आस्रव के दो भेद हैं-द्रव्य और भाव । जीव के द्वारा मन, वचन और काय से प्रतिक्षण होने वाली शुभ या अशुभ प्रवृत्ति को भाव-आस्रव तथा उसके निमित्त से कोई विशेष प्रकार की जड़-पुद्गल वर्गणा आकर्षित होकर उसके प्रदेशों में प्रवेश करती है उसे द्रव्या व कहते हैं । ६. बंध: कर्म प्रदेशों का आत्मा के प्रदेशों में एक क्षेत्रावगाह हो जाना बंध है। मूलाचारकार ने नव पदार्थों में बन्ध को आठवाँ पदार्थ माना है । अर्थात् मोक्ष के ठीक पूर्व बंध का विवेचन किया है । पञ्चास्तिकाय, स्थानांग आदि ग्रन्थों में भी यही क्रम मिलता है। उत्तराध्ययन में जीव, अजीव के बाद ही तीसरा पदार्थ बंध माना है। तत्त्वार्थसूत्र में इसे चतुर्थ स्थान पर रखा है। इसी में पुण्य-पाप को अलग न मानकर आस्रव और बंध तत्व के अन्तर्गत माना है। परिभाषा-कषाय सहित जीव योग के द्वारा कर्म के योग्य पुद्गल द्रव्यों को ग्रहण करता है वह बंध है। मूलाचारवृत्तिकार ने कहा है जिसके द्वारा कर्म बंधते हैं या बन्धनमात्र बंध है अथवा जीवों और कर्म प्रदेशों का परस्पर संश्लेषित होने या आपस में मिल जाने को बंध कहते हैं। दूसरे शब्दों में आत्म-प्रदेशों के साथ १. मूलाचार ८।४५. २. रागो दोसो मोहो इंदियसण्णा य गारवकसाया । मणवयणकायसहिदा दु आसवा होंति कम्मस्स ।। वही, ८।३८. ३. नयचक्र १५२. ४. तत्त्वार्थवार्तिक १।४।१७।२६-२९. ५. मूलाचार ५।६, पंचास्तिकाय २।१०८ ६. उत्तराध्ययन २८।२४. ७. तत्त्वार्थसूत्र : पं० फूलचन्द्रशास्त्री द्वारा सम्पादित ११४, पृष्ठ १०. ८. जीवो कसायजुत्तो जोगादो कम्मणो दु जे जोग्गा । ___ गेण्हइ पुग्गलदव्वे बंधो सो होदि णादव्यो । मूलाचार १२।१८३.. ९. मूलाचार वृत्ति ५।६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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