Book Title: Mulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 553
________________ ५०२ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन सुख को प्राप्त होते हैं । यद्यपि ऐसा माना जाता है कि देवियाँ दूसरे कल्प तक ही उत्पन्न होती हैं किन्तु नियोगवश वे ऊपर के कल्पों में पहुँच जाती हैं । इस प्रकार भवनवासी से लेकर अच्युत स्वर्ग तक के देवों में प्रवीचार सुख का सद्भाव पाया जाता है । इससे अर्थात् सोलहवें कल्प से ऊपर जितने भी कल्पा - तीत के अहमिंद्र आदि देव नियमतः प्रवीचार रहित होते हैं । अर्थात् वे कामवेदना रहित होते हुए भी प्रवीचारी देवों से अनन्तगुणित सुख से युक्त होते हैं, क्योंकि इहलोक के कामसुख तथा भवनवासी से अच्युत तक के स्वर्ग में जो काम सुख हैं वे वीतराग सुख के अनंतवें भाग की भी बराबरी नहीं कर सकते । ' जीवसमास : सम्पूर्ण लोक विविध प्रकार के जीवों से भरा हुआ है । जैनधर्म में इन सभी जीवों को चौदह वर्गों में विभक्त किया है । एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के सभी जीव इन्हीं वर्गों के अन्तर्गत आ जाते हैं । इन्हें हो जोवसमास कहा जाता है | पंचसंग्रह में जीवसमास की परिभाषा में कहा है कि जिन धर्म विशेषों के द्वारा विविध जोव और उनकी विविध जातियों का ज्ञान किया जाय, पदार्थों का संग्रह करने वाले उन धर्म विशेत्रों को जीवसमास कहते हैं । अज्ञेय होने पर भी जिन एकेन्द्रियत्व, बादरत्व आदि धर्मों के द्वारा संग्रहरूप में अनेकों जीवों और उनकी विविध जातियों का निश्चय हो सके उसे भी जीवसमास अनुसार अनन्तानन्त जीव और उनके भेद-प्रभेदों का जिनमें संग्रह किया जाय उन्हें जीवसमास कहते हैं । ४ २ कहते हैं । धवला के जीवसमास के भेद :- मूलतः एकेन्द्रिय के चार, विकलेन्द्रिय ( द्रोन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय तक ) के छह एवं पंचेन्द्रिय के चार ये जीवसमास के चौदह भेद इस ५ प्रकार हैं एकेन्द्रिय के चार भेद १. सूक्ष्म एकेन्द्रिय के दो भेद पर्याप्तक एवं अपर्याप्तक २. बादर एकेन्द्रिय के दो भेद-पर्याप्तक एवं अपर्याप्तक १. मूलाचार १२।९८-१०३, तत्त्वार्थसूत्र ४।७-९. २. पंचसंग्रह (प्राकृत) ११३२, गोम्मटसार जीवकाण्ड ७०. ३. गोम्मटसार जीवकाण्ड ७० भावार्थ सहित | ४. धवला १।१, १, २।१३१।२. ५. मूलाचार १२ । १५२-१५३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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