Book Title: Mulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 549
________________ ४९८ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन है। इसे या इससे उत्पन्न होनेवाली शक्ति को या पौद्गलिक शक्ति को पर्याप्ति कहते हैं। संक्षेप में आहार, शरीरादि की निष्पत्ति को पर्याप्ति कहते हैं। पर्याप्ति के भेद-आहार,शरीर, इन्द्रिय, आनप्राण (श्वासोच्छ्वास), भाषा और मन-ये पर्याप्ति के छह भेद हैं। १. आहार पर्याप्ति-जीव जन्म-ग्रहण करते समय आहार के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है उन पुद्गलों या उनको शक्ति को आहार पर्याप्ति कहते हैं । आहार के विषय में कर्म-नोकर्म स्वरूप से परिणत पुद्गलों का आत्मा के द्वारा ग्रहण करना आहार है तथा औदारिक, वैक्रियक और आहारक-इन तीनों शरीर के योग्य ग्रहण किये गये आहार के जिस परिणमन रूप कारण के द्वारा अस्थि, चर्म, नख और द्रव्य रूप रक्त, वीर्य तथा मांसादि रूप करने में जीव समर्थ होता है, उस कारण की सम्पूर्णता प्राप्त होना पर्याप्ति है ।। २. शरीर पर्याप्ति-जिस कारण से यह जीव शरीर बनाने के योग्य पुद्गल द्रव्यों को ग्रहण कर औदारिक, वैक्रियक और आहारक शरीर रूप परिणमन में समर्थ हो उन कारणों की संपूर्णता होना शरीर पर्याप्ति है। अर्थात् आहार पर्याप्ति में जो पुद्गल शरीर की रचना करने में समर्थ होते हैं, उन पुद्गलों या इनके शरीर बनाने की शक्ति को पर्याप्ति कहते हैं। ३. इन्द्रिय पर्याप्ति-जिस कारणसे एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय-इनके योग्य पुद्गल द्रव्यों को ग्रहण कर यह आत्मा स्पर्शादिक विषयों के ज्ञान में समर्थ होता है उन कारणों की पूर्णता का होना इन्द्रिय पर्याप्ति है। ४. आनप्राण ( श्वासोच्छ्वास ) पर्याप्ति-जिस कारण से यह जीव श्वासोच्छ्वास के योग्य पुद्गल द्रव्यों का अवलम्बकर श्वासोच्छ्वास की रचना को यह आत्मा पूर्ण करता है उस कारण की सम्पूर्णता को आनप्राण पर्याप्ति कहते हैं। ५. भाषा पर्याप्ति-पुद्गलों को शब्दरूप से परिणति होना भाषा है तथा जिस कारण से सत्य, असत्य, उभय और अनुभय-इन चार भाषाओं के योग्य पुद्गल द्रव्यों के अवलंबन से यह आत्मा चतुर्विध भाषा के स्वरूप की सम्पूर्णता प्राप्त करने में समर्थ होता है वह भाषा पर्याप्ति है। १. जीव-अजीव-पृष्ठ १९. २. आहारे य सरीरे तह इंदिय आणपाणभासाए । होंति मणो वि य कमसो पज्जत्तीओ.जिणाखादा ।। मूलाचार १२॥४. २३. मूलाचार वृत्ति, १२॥४. For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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