Book Title: Mulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 547
________________ ४९६ : मूलाधार का समीक्षात्मक अध्ययन : "थोनि : जीवों के उत्पन्न होने के स्थान को योनि कहते हैं । तत्त्वार्थवार्तिक के अनुसार जिसमें जीव जाकर उत्पन्न हो उसका नाम योनि है । " योनि के भेद : - योनि के नौ भेद हैं : (१) सचित्तयोनि - आत्मा के चैतन्य विशेष रूप परिणाम का नाम चित्त तथा जो उसके साथ रहता है वह सचित्त है । (२) शीत योनि, (३) संवृत — जो अच्छी तरह ढकी हो अर्थात् जिससे जीव उत्पन्न होता हुआ दिखाई न दे । (४) अचित्त - चेतनारहित पुद्गल प्रदेश- समूह । (५) उष्णयोनि - संताप युक्त पुद्गल प्रदेश समूह । (६) विवृत्त - प्रकट पुद्गल प्रदेश समूह-ये छह तथा तीन मिश्ररूप योनि अर्थात् (७) सचित्ताचित्त, (८) शीतोष्ण और (९) संवृत्त विवृत्त | 2 उपर्युक्त योनियों में एकेन्द्रिय और नारकीय जीवों तथा देवों की संवृत्त योनि होती है । विकलेन्द्रिय अर्थात् द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों की विवृत्त योनि तथा गर्भजों की संवृतविवृत्त एवं सचित्ताचित्त योनि होती हैं । नारकी और देवों की अचित्त और शीतोष्ण योनि भी होती हैं । शेष एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीवों में से किसी की सचित्त, अचित्त तथा सचितावित तो किसी की शीत, उष्ण और शीतोष्ण योनि होती हैं । उपयुक्त योनियों के अतिरिक्त आकार की अपेक्षा से शंखावर्तक, कूर्मोन्नत तथा वंसपत्र - ये योनियों के तीन भेद हैं । इनमें शंखावर्तक योनि में गर्भ का नियमतः नाश हो जाता हैं । दूसरे शब्दों में शंखावर्तक योनि युक्त स्त्री वन्ध्या होती है । कूर्मोन्नत योनि में तीर्थंकर, चक्रवर्ति, वासुदेव, प्रतिवासुदेव और बलदेव उत्पन्न होते हैं । शेष योनियों में मनुष्यादि उत्पन्न होते हैं । " : जीवों की अपेक्षा योनियों के चौरासी लाख भेद भी हैं अर्थात् नित्यनिगोद, इतरनिगोद, पृथ्वी, अप, तेज, वायु - इन छह में प्रत्येक की सात-सात लाख, वृक्ष आदि (प्रत्येक वनस्पति) की दस लाख, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय- इन १. यूयत इति योनिः -- तत्त्वार्थं वार्तिक २।३२।१०, पृ० २०३. २. मूलाचार वृत्ति १२।५८, सचित्तशीतसंवृताः सेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्योनयः - तत्त्वार्थ सूत्र २।३२. ३. मूलाचार १२।५८-६०. ४. संखावत्तयजोणी कुम्मुण्गद वंसपत्तजोणी य । तत्थ य संखावत्ते नियमादु विवज्जए गब्भो ।। वही १२।६१. ५. मूलाचार १२।६२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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