Book Title: Mulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 537
________________ ४८६ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन के अन्तर्गत कन्दकाय, मूलकाय, त्वक्काय आदि हैं। सम्मच्छिम वनस्पति की उत्पत्ति में पृथ्वी, हवा और जल-ये उपादान कारण होते हैं। प्रायः देखा भी जाता है कि शृंग (सींग) से शर (एक प्रकार का सफेद सरकंडा या घास) तथा गोबर से शालूक उत्पन्न हो जाते हैं। ये बीज के बिना ही उत्पन्न होते हैं, इसी प्रकार कुछ ऐसी वनस्पतियाँ भी हैं जिनमें पुष्प के बिना ही फल उत्पन्न हो जाते हैं, उन्हें फल वनस्पति कहते हैं। कुछ में पुष्प तो उत्पन्न होते हैं पर फल उत्पन्न नहीं होते उन्हें पुष्प वनस्पति कहते हैं तथा कुछ में पत्र ही उत्पन्न होते हैं पुष्प फलादिक नहीं, उन्हें पत्र वनस्पति कहते हैं।' __ दशवकालिक में वनस्पति शब्द को वृक्ष, गुच्छ, गुल्म आदि सभी प्रकार की हरियाली का वाचक माना गया है ।२ कुन्दकुन्दकृत माने जाने वाले मूलाचार में वनस्पति, वृक्ष, औषधि, विरुध, गुल्म और वल्ली-इनके विभाजन पूर्वक इस प्रकार अर्थ बताये हैं-जिसमें फली लगती है उसे वनस्पति कहते हैं। जिसमें पुष्प और फल उत्पन्न होते हैं उसे वृक्ष कहते हैं। फलों के पक जाने पर जो नष्ट हो जाते हैं ऐसी वनस्पति को औषषि कहते हैं। गुल्म और वल्ली को वीरुध कहते हैं । जिसकी शाखायें छोटी तथा जड़ (मूल) जटाकार हैं, उस झाड़ी को गुल्म कहते हैं। तथा वृक्ष पर वलयाकार रूप से चढ़कर बढ़ने वाली वेल या लता को वल्ली कहते हैं । आयुर्वेदिक साहित्य के अन्तर्गत सुश्रुत संहिता में स्थावर औषधि में इन्हीं चार भेदों की गणना की है-(१) जिनके पुष्प न हों किन्तु फल होते हैं उन्हें वनस्पति । (२) जिनके पुष्प और फल दोनों आते हैं उन्हें वृक्ष । (३) जो फैलने वाली या गुल्म के स्वरूप की हो उन्हें विरुष तथा (४) जो फलों के पकने तक ही जीवित या विद्यमान रहती हों उन्हें औषधि कहते हैं । बादरकायिक और सूक्ष्मकायिक वनस्पति : शैवाल (काई), पणक जमीन पर इंटों तथा वामी आदि में उत्पन्न), केण्णग या केणुग (वर्षाकाल में कूड़ा आदि में उत्पन्न छत्राकार वनस्पति जिसे कुकुरमुत्ता आदि भी कहते हैं), कवक-सींग में उत्पन्न होने वाली छत्ररूप जटाकर वनस्पति और कुहण (बासे आहार कांजिक आदि में उत्पन्न पुष्पिका या फफूद) ये सब वावर (स्थूल) १. मूलाचार वृत्ति ५।१७. २. दशकालिक ४ सूत्र ८. ३. फली वणप्फदी णेया रुक्खफुल्लफलं गदो। ओसही फलपक्कता गुम्मा वल्ली च वीरुदा ॥ कुन्द० मूला० ५।२५. ४. सुश्रुत संहिता-सूत्र-स्थान ११३७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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