Book Title: Mulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 480
________________ आर्यिकाओं की आचार पद्धति : ४२९. या कुछ समय तक की (अल्पकालिक ) क्रियायें भी नहीं करनी चाहिए । अर्थात् वहाँ बैठना, लेटना, स्वाध्याय, आहार, भिक्षा ग्रहण, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग एवं मलोत्सर्ग आदि क्रियायें भी निषिद्ध हैं ।" क्योंकि कामाग्नि से पीड़ित हुआ मलिन चित्तवाला श्रमण उस संघ में रहने वाले स्थविर, चिरदीक्षित मुनि, आचार्य, बहुश्रुत उपाध्याय तथा तपस्वियों को भी कुछ नहीं समझता है, उनको नहीं देखता, उनकी उपेक्षा कर देता है । और तो और, वह अपने माता-पिता के कुल को अथवा अपने सम्यक्त्व आदि को भी नष्ट कर देता है, या इन गुणों की वह विराधना कर देता है । २ भी संसर्ग से भगवती आराधना में कहा है कि स्थिरबुद्धिधारी श्रमण के चित्त में उल्लास पाकर चंचल चित्तवाली आर्यिका का मन उसी प्रकार द्रवित होता है जैसे अग्नि के समीप घी द्रवित ( पिघल ) होता है । आर्या के साथ परिचय को प्राप्त किये या उसके अनुगामी भी उससे स्वयं को छुड़ाने में असमर्थ होता है । वृद्ध, तपस्वी, बहुश्रुत और जनमान्य ( प्रामाणिक ) श्रमण भी यदि आर्याजन से संसर्ग रखता है तो वह लोकापवाद का भागी (लोगों की निन्दा का स्थान) बन जाता है। तब जो श्रमण अवस्था में तरुण हैं, बहुश्रुत भी नहीं हैं और न जो उत्कृष्ट तपस्वी और चारित्रवान् हैं वे आर्याजन के संसर्ग से लोकापवाद के भागी क्यों नहीं होंगे ? जो साधु घर, जमीन आदि समस्त परिग्रहों से मुक्त है वह सर्वत्र अपने को वश में रखता है किन्तु वही साधु आर्या का अनुगामी होकर आत्मवशी नहीं रहता । साधु का आर्या के साथ ऐसा बन्धन है जिसकी कोई उपमा नहीं है । चर्म के साथ ही उतरने वाला वज्रलेप भी उसके समान नहीं है साधु के लिए केवल आर्याओं का संसर्ग ही त्याज्य नहीं है, बल्कि जो बाला, कन्या, तरुणी, वृद्धा, सुरूप, कुरूप सभी प्रकार के स्त्रीवर्ग में प्रमाद रहित होता है और कभी भी उनका विश्वास नहीं करता वही साधु ब्रह्मचर्य को जीवन पर्यन्त पार लगाता है । जो उससे विपरीत होता है अर्थात् स्त्रियों के सम्बन्ध में प्रमादी और विश्वासी होता है वह ब्रह्मचर्य को पार नहीं कर पाता । आर्यिकाओं के १. मूलाचार ४।१८०, १०/६१ वृत्ति सहित । २. वही, वृत्ति सहित ४।१८१. ३. भगवती आराधना ३३३, ३३६. ४. वही, ३३१. ५. वही, गाथा ३३२, ३३५, ३३७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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