Book Title: Mulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 511
________________ ४६० : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन जीवों के परिणामों में निर्मलता आ जाती है, किन्तु यह निर्मलता ऊपरी सतह के स्वच्छ जल के समान है । सत्ता में तो मोहनीय कर्म अभी भी विद्यमान है । फिर भी ऐसी अवस्था से युक्त जीव को शान्तमोह या उपशान्त-कषाय वीतराग छद्मस्थ कहते हैं।' इस गुणस्थान में औपशमिक-यथाख्यात चारित्र प्रकट होता है। (१२) क्षीणमोह (क्षीणकषाय वीतरागछमस्थ) :-जिसका मोह पूर्णतः नष्ट हो चुका है वह क्षीणमोह कहलाता है । मोहनीय कर्म रूप द्रव्यमोह और रागद्वेषादि रूप भावमोह-इन दोनों प्रकार के मोह कर्म से रहित साधु क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती माना जाता है । इस गुणस्थान तक ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म की सत्ता रहने से इन गुणस्थानवी जीवों को छद्मस्थ कहते हैं । इस अवस्था से पतन का कोई भय नहीं रहता। यहाँ शुक्लध्यान का एकत्ववितर्क नामक द्वितीय भेद प्रकट होता है । जैसा कि उपशमक और क्षपक इन दो भेदों का पूर्व में उल्लेख किया है इनके विषय में यह स्पष्टीकरण आवश्यक है कि क्षणक श्रेणी वाला जीव तो दसवें गुणस्थान से एकदम बारहवें गुणस्थान में चढ़ता है किन्तु उपशम श्रेणी वाला जीव दसवें के बाद ग्यारहवें गुणस्थान में चढ़ता है। इसका अन्तमुहूर्त प्रमाणकाल पूरा होते ही मोहनीय कर्म के उदय से नियमतः वह नीचे गिर जाता है। नीचे गिरता हुआ वह जीव छठे, सातवें गुणस्थान तक आ जाता है । यदि बहाँ वह पुनः प्रयत्न करे तथा क्षायिक सम्यग्दृष्टि बनकर क्षपक श्रेणी पर चढ़े तो वह भी क्षपक की तरह दसवें से एकदम बारहवां गुणस्थानवर्ती बनकर क्षीणमोही वीतराग बन सकता है और एक अन्तर्मुहर्त तक उस वीतरागता का अनुभव कर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय-इन शेष तीन धातिया कर्मों का क्षय करके तेरहवें गुणस्थान में पहुँचता है, जहाँ वह अरहन्त, सर्वज्ञ, जीव. न्मुक्त आदि संज्ञाओं को धारण करता है। (१३) सयोगकेवली :--जो केवली योग (मन, वचन, काय की प्रवृत्ति) सहित होता है अर्थात् तीन प्रकार के योग सहित रहने से वह सयोग या सयोगी तथा केवल ज्ञान-दर्शन के स्वामी होने से वह केवली होता है। इस तरह इस गुणस्थान का नाम सयोगकेवली है । इसमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय-ये चार घातिया कर्म नष्ट होने से केवलज्ञान की प्राप्ति हो १. पंचसंग्रह (संस्कृत) ११४७. २. मूलाचार वृत्ति १२।१५५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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