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३८ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
स्वीकार करते हुए लिखा है-वट्टकेर स्वामीकृत मूलाचार को कहीं-कहीं कुन्दकुन्दाचार्यकृत भी कहा गया है । यद्यपि यह बात सिद्ध नहीं होती, तथापि उससे इस ग्रन्थ के प्रति समाज का महान् आदरभाव प्रकट होता है ।' नाथूराम जी प्रेमी ने तो अनेक प्रमाणों द्वारा यह सिद्ध किया है कि मूलाचार कुन्दकुन्द परम्परा का ग्रन्थ नहीं मालूम होता। विद्वानों से निवेदन है कि वे वट्टकेरि को कुन्दकुन्द बनाने का प्रयास न करके इस ग्रन्थ का जरा और गहराई से अध्ययन करके यथार्थ स्थिति को समझने की चेष्टा करें।
वस्तुतः मूलाचार और कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की तुलना करने से भी मूलाचार कुन्दकुन्द की कृति सिद्ध नहीं होती, क्योंकि दोनों की कथन शैली, मान्यतायें, भाषा और विषय में भिन्नता है। पं. कैलाशचन्द शास्त्री ने इस विषय में लिखा है कि इसमें सन्देह नहीं कि मूलाचार कुन्दकुन्द का ऋणी है किन्तु कुन्दकुन्द रचित प्रतीत नहीं होता। कुन्दकुन्द रचित नियमसार, प्रवचनसार, समयसार आदि ग्रन्थों में जो रचना वैशिष्ट्य, निरूपण की प्रांजलता तथा अध्यात्म का पुट है वह मूलाचार में नहीं। प्रवचनसार के अन्त में आगत मुनिधर्म के संक्षिप्त किन्तु सारपूर्ण वर्णन से मूलाचार के किन्हीं वर्णनों में उनके साथ एकरूपता भी नहीं है । मूलाचार के समयसाराधिकार में कुन्दकुन्द के समयसार ग्रन्थ की छाया भी नहीं'। इस प्रकार यहाँ प्रस्तुत अनेक प्रमाणों से यह सिद्ध है कि मूलाचार कुन्दकुन्द कृत नहीं है।
मूलाचार को संग्रह-ग्रन्थ मानने वाले विद्वानों के समर्थन का आधार मूलाचार में पायी जाने वाली कुछ गाथाओं से अन्य ग्रन्थों की गाथाओं में परस्पर समानता है वैसे पूर्वोक्त कुछ विद्वान् जिन-जिन ग्रन्थों की गाथाओं को मूलाचार में संग्रहीत किये जाने की बात कहते हैं, किन्तु अभी उनके ठोस प्रमाण उपस्थित नहीं हैं । जहाँ तक पं० सुखलाल जी संघवी के अनुसार सिद्धसेन दिवाकर प्रणीत 'सन्मति-प्रकरण' की चार गाथाओं को मूलाचार में लिये जाने के कथन का प्रश्न है, उसका भी अभी पूर्ण समर्थन प्राप्त नहीं होता, क्योंकि तिलोयपण्णत्ति में मूलाचार के स्पष्ट उल्लेख पाये जाने के कारण मूलाचार
१. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ० १०५. २. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ५५२-५५३. ३. आ० शांतिसागर जन्मशताब्दी स्मृति ग्रन्थ, पृ० ७७-७८. ४. सन्मति प्रकरण २।४०-४३ ये गाथाएँ मूलाचार में १०८७-९० में संग्रहीत
की गई हैं-सन्मति प्रकरण, प्रस्तावना पृ० ४८.
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