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मूलगुण : ६१ है, तब वह दस प्रकार के ब्रह्मचर्य का पालन कर पाता है । मूलाचारकार ने शीलगुणाधिकार में अब्रह्म ( शील विराधना ) के दस कारण बतायें हैं—स्त्रीसंसर्ग, प्रणीतरसभोजन, गंधमाल्यसंस्पर्श, शयनासन, वस्त्राभूषण, गीतवादित्र, अर्थसंप्रयोग (सुवर्णादिक धन की अभिलाषा ), कुशील संसर्ग, राजसेवा और रात्रिसंचरण । इन सबके सर्वथा त्याग से ही विशुद्ध ब्रह्मचर्य महाव्रत का पालन हो सकता है । क्योंकि साधन शुद्धि के बिना साध्य की सिद्धि नहीं होती ।
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५. संग - विमुक्ति (अपरिग्रह ) - लोभ कषाय के उदय से विषयों का संग परिग्रह है । संग- विमुक्ति से तात्पर्य बाह्य और आभ्यान्तर परिग्रह का त्याग, परिग्रह के प्रति आसक्ति का अभाव । जीवों के आश्रित मिथ्यात्वादि अथवा दासी दास, पशु आदि रूप परिग्रह एवं अनाश्रित (अप्रतिबद्ध ) धन-धान्यादि रूप परिग्रह एवं जीवों से उत्पन्न शंख शुक्ति, चर्म, कम्बलादि रूप परिग्रह — इन सबका सर्वथा त्याग करना अन्य संयम एवं ज्ञानोपकरणों के प्रति निर्मम भाव रखना संग - विमुक्ति (अपरिग्रह ) महाव्रत है । श्रमण को जो अनिवार्य हैं, असंयमी जनों द्वारा अप्रार्थनीय है तथा ममत्व आदि पैदा न करने वाली वस्तु ही उपादेय है । इससे विपरीत अल्पतम परिग्रह भी उसके लिए ग्राह्य नहीं है" । क्योंकि पापरूप उपकरणों के ग्रहण की आकांक्षा परिग्रह है
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मुमुक्षु तो अपने शरीर को भी परिग्रह मानता है । आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा भी है शरीरादि के प्रति परमाणुमात्र भी मूर्च्छा ( आसक्ति) रखने वाला भले ही सम्पूर्ण आगमों का धारी ( ज्ञाता ) हो तथापि सिद्धि प्राप्त नहीं करता । वस्तुतः धन-वैभव आदि का सदा के लिए त्याग करके ही श्रमणधर्म में दीक्षित होता है । किन्तु परिग्रह त्याग के बाद भी उसके प्रति ममत्व रूप विकल्प की मन में गाँठ बनी रहना ही मूर्च्छा है, जो श्रमण को अपनी साधना में कभी सफल नहीं होने देती । क्योंकि जैसे सांसारिक व्यक्ति के मन में परिग्रह
की सुरक्षा का भय बना रहता है, वैसे ही वस्तु के प्रति मूर्च्छा रखने वाले श्रमण के
१. मूलाचार ११ । १३-१४.
२. लोभकषायोदयाद्विसयेषु संग ः परिग्रहः -- सर्वार्थसिद्धि ४।२१.
३. मूलाचारवृत्ति ११४.
४. जीव णिबद्धा बद्धा परिग्गहा
तेसि सक्कच्चागो इयरम्हि य
जीवसंभवा चेव ।
णिम्म ओऽसंगो ।। मूलाचार ११९.
५. प्रवचनसार ३।२३.
६. परिग्रहः पापादानोपकरणकांक्षा मूलाचार वृत्ति ११1९.
७. प्रवचनसार २२४, २३९.
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