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मूलगुण : ६७ महत्व प्रतिपादन की आवश्यकता महसूस हुई और तदनुसार उसका प्रतिपादन किया।
ब्रह्मचर्य महाव्रत के स्वरूप तथा उद्देश्यों का जब हम अध्ययन करते हैं तब पाते हैं कि यह महाव्रत एक जीवनव्यापी साधना है जो किसी भी काल या स्तर में सीमित नहीं है। यह ऐसा चिंतन है जिसके पालन से सभी प्राणियों के प्रति वह समदृष्टि जाग्रत होती है जो आध्यात्मिक ही नहीं अपितु सांसारिक जीवन के लिए भी बहुत आवश्यक है। वैसे सांसारिक विविध कामभोग आदि विषयों का सदा को त्याग कम-दुष्कर कार्य नहीं है, किन्तु जिसका उद्देश्य साधना के मार्ग पर चलते हुए आत्म विकासकर मुक्ति प्राप्त करना है, उसे तो इन सबका सर्वथा त्याग प्रथम अनिवार्य कर्तव्य है अन्यथा इनके रहते व्यक्ति को भौतिक सुखों की प्राप्ति हेतु परिग्रह का सहारा लेना पड़ता है और परिग्रह की प्राप्ति हेतु हिंसा, झूठ, चोरी जैसे अनेक पापों को साधन बनाना पड़ता है । इसलिए किसी भी साधक को अपने लक्ष्य की प्राप्ति हेतु आगे बढ़ने के लिए ब्रह्मचर्य को अपने सम्पूर्ण जीवन में चरितार्थ करना आवश्यक है ।
पाँच महाव्रतों की परम्परा दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में समान है । किन्तु आगे चलकर अर्धमागधी आगम परम्परा के कुछ ग्रन्थों में इन पाँच महाव्रतों के साथ छठा रात्रिभोजन विरमण व्रत भी जुड़ गया।' मूलाचारकार ने रात्रिभोजनत्याग को अहिंसा महाव्रत में अन्तनिहित मानकर इसे अलग से मूलगुण नहीं माना। अहिंसा महाव्रत की "आलोक्य-पान-भोजन" नामक भावना में रात्रिभोजन त्याग गर्भित है। एकभक्त नामक मूलगुण का विधान होने से भी रात्रिभोजन त्याग की मूलगुणों में गणना का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता । जैन परम्परा में रात्रिभोजन के त्याग का विधान श्रावकों तक के लिए है तब श्रमणों को इसका विधान तो अपने आप ही सिद्ध है । इस संबंध में मूलाचारकार ने चारित्राचार के विवेचन प्रसंग में अहिंसा महाव्रत की रक्षार्थ रात्रिभोजन त्याग को प्रथम कर्तव्य कहा है । तथा रात्रिभोजन से उत्पन्न दोषों का भी वहाँ संक्षिप्त में अच्छा विवेचन किया गया है।
१. अहावरे छठे भंते । वए राईभोयणाओ वेरमणं । दशवकालिक ४।१६. २. तेसिं चेव वदाणं रक्खटुं रादि भोयणणि यत्ती ।
अट्ठय पवयणमादा य भावणाओ य सव्वाओ । तेसिं पंचण्हपि यान्हयाणमावज्जणं च संका वा । आदविवत्ती अ हवे रादीभत्तप्पसंगेण ॥ मूलाचार ५।९८, ९९
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