Book Title: Mulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 476
________________ आर्यिकाओं की आचार पद्धति : ४२५ वसतिकाओं में आयिकायें मात्सर्यभाव छोड़कर एक दूसरे के अनुकूल, तथा एक दूसरे के रक्षण के अभिप्राय में पूर्ण तत्पर रहती हैं। रोष, बेर और मायाचार जैसे विकारों से रहित, लज्जा, मर्यादा और उभयकुल-पितृकुल, पतिकुल अथवा गुरुकुल के अनुरूप आचरण (क्रियाओं) द्वारा अपने चारित्र की रक्षा करती हुई रहती हैं।' आयिकाओं में भय, रोष आदि दोषों का सर्वथा अभाव पाया जाता है। तभी तो ज्ञानार्णव में कहा है शम, शील और संयम से युक्त अपने वंश में तिलक के समान, श्रुत तथा सत्य से समन्वित ये नारियाँ (आर्यिकायें) 'धन्य हैं। समाचार : विहित एवं निषिद्ध चरणानुयोग विषयक जैन साहित्य में श्रमण और आर्यिकाओं दोनों के समाचार आदि प्रायः समान रूप से प्रतिपादित हैं। मूलाचारकार ने इनके समाचार के विषय में कहा है कि आयिकायें अध्ययन, पुनरावृत्ति (पाठ करने) श्रवण-मनन, कथन, अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन, तप, विनय तथा संयम में नित्य ही उद्यत रहती हुइ ज्ञानाभ्यास रूप उपयोग में सतत् तत्पर रहती हैं तथा मन, वचन और कायरूप, योग के शुभ अनुष्ठान से सदा युक्त रहती हुई अपनी दैनिक चर्या पूर्ण करती हैं। किसी प्रयोजन के बिना परगृह चाहे वह श्रमणों की ही वसतिका क्यों न हो या गृहस्थों का घर हो, वहाँ आर्यिकाओं का जाना निषिद्ध है। यदि भिक्षा प्रतिक्रमण, स्वाध्याय आदि विशेष प्रयोजन से वहाँ जाना आवश्यक हो तो गणिनी (महत्तरिका या प्रधान आर्यिका) से आज्ञा लेकर अन्य कुछ आर्यिकाओं के साथ मिलकर जा सकती हैं, अकेले नहीं।" स्व-पर स्थानों में दुःखात को देखकर रोना, अश्रुमोचन, स्नान (बालकों को स्नानादि कार्य) कराना, भोजन कराना, रसोई पकाना, सूत कातना तथ । छह प्रकार का आरम्भ अर्थात् जीवघात की कारणभूत क्रियायें आर्यिकायें नहीं करती । संयतों के पैरों में मालिश करना, उनका प्रक्षालन १. अण्णोण्णणुकूलाओ अण्णोण्णाहिरक्खणाभिजुत्ताओ । ___ गयरोसवेरमायासलज्जमज्जादकिरियाओ । मूलाचार ४।१८८. २. ज्ञानार्णव १२१५७. ३. हिस्ट्री आफ जैन मोनासिज्म, पृ० ४७३. ४. अज्झयणे परियट्टे सवणे कहणे तहाणुपेहाए । ____ तवविणयसंजमेसु य अविरहिदुपओगजोगजुत्ताओ ।। मूलाचार ४।१८९. ५. ण य परगेहमकज्जे गच्छे कज्जे अवस्सगमणिज्जे । गणिणीमापुच्छित्ता संघाडेणेव गच्छेज्ज ॥ मूलाचार ४।१९२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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