Book Title: Mulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 466
________________ श्रमण संघ : ४१५ क्षोभ-पूर्वक यह कहने के लिए बाध्य होना पड़ा कि गण में प्रवेश की अपेक्षा विवाह करके घर बसा लेना अच्छा है क्योंकि विवाह से तो राग की उत्पत्ति होती है किन्तु गण तो अनेक दोषों की खान है । वट्टकेराचार्य ने शिथिलाचारी प्रवृत्तियों की कड़े शब्दों में निन्दा की और ऐसे श्रमणों को ढोंढाचार्य, समणपोल्लो जैसे शब्दों से सम्बोधित किया एवं पार्श्वस्थ, कुशील आदि पाप-श्रमणों से सदा दूर रहने को कहा । संघ में रहकर ज्ञान-ध्यान एवं संयम की साधना में संलग्न रहनेवाले श्रमणों को प्रशसा की और कहा कि जैसे नवप्रसूता गाय अपने बछड़े के प्रति सहज वात्सल्य और स्नेहभाव रखती है वैसे ही चारों गतिरूप संसार से पार करने में कारणभूत - चतुर्विध संघ में वात्सल्य रखना चाहिए । यही कारण है कि दक्षिण भारत में बहुत साल तक भद्रबाहु के बाद किसी संघ, गण, गच्छ का निर्माण न हो सका।। श्रमण सध: परिवर्तन की दिशा:डॉ. गुलाबचंद्र चौधरी के अनुसार ऐतिहासिक दृष्टि से श्रमण संघ का गण, गच्छ आदि रूप में विभाजन विक्रम की तीसरी शती के उत्तराध का है। इसके पहले समग्र जैन संघ का नाम निर्ग्रन्थ संघ था। दक्षिणी जैनधर्म की मान्यता में भगवान महावीर के बाद गुरु-परम्परा में वीर निर्वाण संवत् ६८३ अर्थात् लोहाचार्य तक एक-एक ही आचार्य शिष्य परम्परा से चले आये और उनको किन्ही शाखा-प्रशाखाओं का उल्लेख नहीं मिलता। भगवान् महावीर निर्वाण के बाद करीब ७०० वर्षों में समस्त जैन संघ को विकासशील पाया। किन्तु देश-काल एवं मानवीय प्रवृत्तियों का आश्रय लेकर वह विकसित होता रहा और ईसा की प्रथम-द्वितीय शताब्दियों में कतिपय भेदों में प्रस्फुटित होने लगा । इसके बाद उसे नए देश, नये वातावरण, नये राज्याश्रय और नये समाज में परिस्थितिवश अपनी व्यवस्था करनी पड़ी, जिन व्यवस्थाओं के नाम पर उसमें आवश्यक परिवर्तन अनिवार्य हो गया । जैन मुनि का आदर्श जो महावीर के युग में था, वह ७०० वर्ष बाद पर्याप्त बदल गया था। तिल-तुष परिग्रह न रखने वाला निग्रन्थ भो जमाने की चपेट में आ अपवाद मार्ग का आलम्बन ले धार्मिक संस्थाओं की व्यवस्था देखने के नाम पर प्रवृत्तिमार्गी होने लगा था । उसने नवीन राज्याश्रय पा नये सघों, गणों एवं गच्छों की स्थापना की। नई-नई आचार्य परम्परायें कायम हुई, जिनमें कुछ तो स्थानीय और कुछ व्यापक रूप धारण करने लगी । इस नई व्यवस्था के काल में भी निवृत्तिमार्गी परम्परानुयायो साधुओं का बड़ा समाज था जो विज्ञापनहीन जनजीवन से परे, अपनी आत्मआराधना में लगा रहता था और अपने सहमियों की उक्त प्रवृत्ति का समय-समयपर तीन विरोध करता था।' १. आचार्य भिक्षु स्मृति ग्रन्थ : डॉ० गुलाबचंद्र चौधरी का लेख 'दिगम्बर जैनसंघ के अतीत को एक झांकी' से. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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