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५८ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
भी प्राणी को कभी भी पीड़ा नहीं पहुँचाते । वे सभी जीवों के प्रति वैसे ही दया से परिपूर्ण होते हैं, जैसे माता अपने पुत्रादिक पर वात्सल्य रखती है।'
इस महाव्रत की प्रशंसा में कहा है कि इस जगत में अणु से छोटी और आकाश से बड़ी कोई दूसरी वस्तु नहीं, वैसे ही अहिंसा व्रत से बड़ा और कोई अन्य व्रत नहीं । यह सर्व आश्रमों का हृदय, सर्वशास्त्रों का गर्भ और सभी व्रतों का निचोड़ है। जैसे धान्य के खेत की रक्षार्थ चारों ओर काँटों की बाड़ी होती है उसी तरह सत्य, अस्तेय आदि महाव्रत भी अहिंसा की रक्षा के लिए हैं। अतः श्रमण को चाहिए कि जगत में जितने प्राणी हैं उनकी जाने या अनजाने में हिंसा न करे, न करावे और न हिंसा करने वाले का अनुमोदन ही करे।
२ सत्य महावत-राग, द्वेष, क्रोध, भय, और मोह आदि दोषों से युक्त असत्यवचन, परसन्तापकारी सत्यवचन तथा सूत्रार्थ (द्वादशांग के अर्थ) के विकथन में अपरमार्थवचन-इन सबका परित्याग करना सत्य महाव्रत है।" परसंतापकारी वचन जैसे-हास्य, भय, क्रोध, तथा लोभवश विश्वासघातक झूठ वचनों का सर्वथा त्याग सत्यमहाव्रत है। निशीथणि में मन, वचन और कर्म-इन तीनों की एकरूपता को सत्य तथा इसके अभाव को मृषावाद कहा है। प्रकारान्तर से मृषावाद (असत्य) चार प्रकार का होता है। १. विद्यमान वस्तु का निषेध करना । जीवादि तत्त्वों की विद्यमानता को नकारना कि जीव (आत्मा), पुण्यपाप आदि नहीं हैं । २. असद्भाव-उद्भावन-जो नहीं है उसके विषय में कहना कि यह है । जैसे आत्मा के सर्वगत, सर्वव्यापी न होने पर भी उसे वैसा कहना या श्यामाक तन्दुल सदृश कहना । ३. अर्थान्तर-एक वस्तु को दूसरी वस्तु कह देना । जैसे जीव को अजीव अथवा गाय को घोड़ा कह देना आदि । ४. गाँ
१. वसुधम्मि वि विहरंता पीडं ण करेंति कस्सइ कयाई ।
जीवेसु दयावण्णा माया जह पुत्तभंडेसु ॥ मूलाचार ९।३२. २. पत्थि अणू दो अप्पं आयासादो अणूणयं ण त्थि ।
जह जह जाण महल्लं ण वयमहिंसासमं अत्थि ।। भगवती आराधना ७८४. ३. सर्वार्थसिद्धि ७।१ पृ० ३४३. ४. दशवैकालिक ६।१०. ५. रागादीहिं असच्चं चत्ता परतावसच्चवयणुत्ति ।
सुत्तत्थाणविकहणे अयधावणुज्झणं सच्चं ।।मूलाचार ११६ ६. मूलाचार ५१९३. . ७. निशीथ चूणि पृ० ३९८८. ८. दशवकालिक ४११२. जिनदासकृत चूणि पृ० १४८.
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