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मूलगुण : ५७ नहीं हैं वैसे ही उन जीवों को भी दुःख प्रिय नहीं हैं, ऐसा जानकर सदा अपनी ही तरह सभी जीवों के प्रति व्यवहार करना चाहिए।' तथा भूख, प्यास, रोग, शीत तथा आतप से पीड़ित होने पर भी अन्य प्राणियों का घात करके अपनी भूख, प्यास आदि के प्रतिकार की बात तक मन में नहीं लाना चाहिए ।
वस्तुतः हिंसा-अहिंसा न तो जड़ में होती है और न ही जड़ वस्तु के कारण हो । उनकी उत्पत्ति-स्थान व कारण दोनों ही चेतन है अतः हिंसा-अहिंसा का संबंध दूसरे प्राणियों के जीवन-मरण, सुख-दुःख मात्र से न होकर आत्मा में उत्पन्न होने वाले राग-द्वष-मोह परिणामों से भी है। क्योंकि किसी जीव की हिंसा हो जाने पर प्रत्येक को कर्म का बंध एक जैसा नहीं होता, किन्तु उस व्यक्ति की कषाय की तीव्रता-मन्दता और भावधारा के अनुरूप ही कर्मबंध होता है। प्रवचनसार में कहा है-जीव मरे या जीये, इससे हिंसा का कोई संबंध नहीं है । यत्नाचार विहीन प्रमत्त पुरुष निश्चित रूप से हिंसक है और जो प्रयत्नवान् एवं अप्रमत्त, समिति-परायण है उनको किसी जीव की हिंसा मात्र से कर्मबंध नहीं होता, क्योंकि प्रयत्नवान् श्रमण के मन में किसी जीव की हिंसा का भाव यदि नहीं है और कदाचित् अनजाने में किसी जीव को उसके द्वारा कष्ट पहुंचे या मर जाये तो भी परिणामों में मारने का भाव न होने के कारण द्रव्य-हिंसा होते हुए भी उन्हें कर्म का बन्ध नहीं होता । इसीलिए कहा है-रागद्वेषादि अशुभ परिणामों का मन में उत्पन्न न होना ही अहिंसा तथा इन परिणामों की उत्पत्ति ही हिंसा है।" ___ इस प्रकार अहिंसा की साधना करने वाला साधक राग-द्वेष को कर्मों का बीज मानकर समभाव रखता है । समभाव को आचार्य कुन्दकुन्द ने चारित्र कहा है।" इस प्रकार के समभाव से युक्त श्रमण इस पृथ्वी पर विहार करते हुए किसी
१. जह ते ण पियं दुक्खं तहेव तेसिपि जाण जीवाणं ।
एवं णच्चा अप्पोवमिवो जीवसु होदि सदा ॥ भगवती आराधना ७७७. २. वही ७७८. ३. मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा ।
पयदस्स णत्थि बंधो हिंसामेत्तण समिदस्स ॥ प्रवचनसार २१७. ४. आप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । - तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ।। पुरुषार्थसिद्धयुपाय ४४. ५. चारित्तं समभावो-पंचास्तिकाय १०७.
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