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मूलगुण
स्वरूपतः मनुष्य दुखों से सदा के लिए मुक्त होने तथा शाश्वत सुख का अभिलाषी होता है इसके लिए आध्यात्मिक विकास आवश्यक है। आचार की शुद्धता के बिना यह सम्भव नहीं है । दुःख, मोह, क्षोभ, शोक आदि से सन्तप्त आत्मा का उद्धार कर परमात्मपद प्राप्ति के सही मार्ग का प्रतिपादन और तदनुसार स्वयं उस मार्ग का अनुसरण कर उस लक्ष्य को प्राप्त करना जैन तीथंकरों का स्व-पर के लिए महान् पुरुषार्थ है । वस्तुतः प्रत्येक प्राणी की आत्मा में अनन्त शक्ति विद्यमान है, वह अप्रकट रूप में परमात्मा है । काषायिक वासना ने ही इसे संसारबद्ध कर रखा है। स्वरूपतः वह स्वतंत्र है । स्वतन्त्रता रूप स्वरूप की उपलब्धि के लिए "आचार मार्ग" का अनुसरण अनिवार्य है। आचार मार्ग के जैनधर्म में दो विभाग हैं। प्रथम गृहस्थाश्रम में रहकर अहिंसा आदि व्रतों को अणुरूप में पालन करना श्रावकाचार है । जो मुमुक्षु चाहते हुए भी मुनि-धर्म के पालन में अपने को असमर्थ पाता है अथवा मुनिधर्म में आरूढ़ होने का अभ्यास तथा क्षमता उत्पन्न करने के दृष्टि से व्रतादि रूप आचार का एकदेश पालन करना चाहता है उन्हें देश, काल और शक्ति आदि की परिस्थितियों के अनुसार पालन करने योग्य श्रावकाचार है। परन्तु यह साक्षात् मुक्ति का मार्ग न होकर क्रमशः मुक्ति का सहायक कारण है । द्वितीय श्रमणाचार या साध्वाचार है। जिसे साक्षात् मुक्ति का कारण माना जाता है। इसमें मुमुक्षु को दीक्षा के समय जिन महाव्रतादि गुणों को अखण्ड रूप में धारण और उनका सर्वदेश पालन करना अनिवार्य होता हैं वे मूलगुण कहे जाते हैं ।
मूलगुण धारण की पृष्ठभूमि :
श्रमणधर्म कषायों का उपशमन, राग-द्वेष की निवृत्ति तथा शान्ति और समतारूप है जब श्रमणधर्म धारण का इच्छुक सांसारिक सुखों से पूर्णतः विरक्त तथा आत्मकल्याण की भावना से युक्त होकर इस धर्म के धारण और पालन की पूर्ण क्षमता अपने में अनुभव कर लेता है, उस समय गृहत्याग एवं श्रमणधर्म धारण करने के लिए सर्वप्रथम वह बंधुवर्ग से पूछकर विदा माँगता है । तब बड़ों से, पुत्र और स्त्री से विमुक्त होकर ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्यइन पाँच आचारों को अंगीकार करके उस गणी (आचार्य) के पास (दीक्षार्थ) पहुँचता है । जो श्रमण हो, श्रामण्य का आचार करने एवं कराने में गुणाढ्य.
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