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प्रास्ताविक : २१
है | पं० नाथूराम प्रेमी ने इसका समय वि० सं० ५३५ और ६६६ (ई० सन् ४७८-६०९) माना है । क्योंकि जिनभद्रगणि-क्षमाश्रमण ने अपने विशेषावश्यक - भाष्य में जो कि वि० सं० ६६६ की रचना है, आदेश कषाय का स्वरूप बताकर आचार्य यतिवृषभ के चूर्णिसूत्र - निर्दिष्ट स्वरूप का 'केचित्' कहकर उल्लेख किया है ।"
मूलाचार की प्राचीनता सिद्ध करने में तिलोय पण्णत्ती भी एक महत्त्वपूर्ण आधार है । इसमें “मूलाआरे इरिया एवं निउणं णिरूवेंति" - यह कहकर मूलाचार ग्रन्थ के मत का स्पष्ट उल्लेख किया है । यहाँ आचार्य यतिवृषभ ने सौधर्म और ऐशान, सानत्कुमार और माहेन्द्र, ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर तथा लांतव और कापिष्ठ इन चार युगलों को इन्द्र-देवियों की आयु तथा इससे आगे आरण युगल तक की देवियों की आयु के प्रमाण स्वरूप मूलाचार का जो उल्लेख किया है वह विषय मूलाचार के पर्याप्ति अधिकार में स्पष्ट आया है । 3 इसी अधिकार में पर्याप्ति, चतुर्गति के जीवों का विविध वर्णन, योग, वेद, बंध, द्वीप, समुद्र, योनि आदि लगभग बीस विषयों का वर्णन है । इन विषयों में बन्धादि विषयों को छोड़कर प्रायः सभी विषय तिलोय पण्णत्ति में यथास्थान उल्लिखित हैं । इतना ही नहीं, अपितु कितनी ही गाथायें दोनों में साधारण शब्द परिवर्तन के साथ ज्यों की त्यों पायी जाती हैं । उदाहरणस्वरूप दोनों की कुछ गाथायें प्रस्तुत हैं ।
मूलाचार
ति० प०
केसह मंसुलोमा चम्मवसारुहिरमुत्तपुरिसि वा । वट्ठी णेव सिरा देवाण अट्ठिसिरारुहिरवसामुत्तपुरीसाणि चम्मड मंसप्पहुदी ण होई देवाण
सरीरसंठाणे || १२।११ ॥
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केसलो माई | संघडणे ।।३।२०८ ।।
१. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० १० ।
२. आरणदुगपरियंतं वड्ढते पंचपल्लाई ।
'मूलाआरे इरिया' एवं णिउणं णिरूवेंति । तिलोय पण्णत्ति, भाग २,
८/५३२, पृ० ८८३
३. पलिदोवमाणि पंचयसत्तारसपंचवीस पणतीसं ।
चउसु जुगलेसु आऊ णादव्वा इंददेवीणं ।। - वही, ८ ५३१ पणयं दस सत्तधियं पणवीसं तोसमेव पंचधियं ।
चत्तालं पणदालं पण्णाओ पण्णपण्णाओ || - मूलाचार १२८० ४. इन गाथाओं की सूची के लिए देखिए -तिलोय पण्णत्ति की प्रस्तावना,
भाग २, पृ० ४२-४४
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