Book Title: Mukmati Mimansa Part 01
Author(s): Prabhakar Machve, Rammurti Tripathi
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 17
________________ मूकमाटी-मीमांसा :: xiii सब लीला | और छेड़ा गया तो उन्होंने कहा - 'सृष्टि एक भ्रम है।' वह वास्तव में भ्रम या अज्ञान या माया की उपज है । कहने के लिए उन्होंने यह सब कह दिया। आपकी धारणा क्या है ? आपकी दृष्टि क्या है? किस चीज से सृष्टि बनाई गई है ? आ. वि. - सृष्टि यदि रचना है, इसलिए सृष्टि अपने आप में एक कर्म है। मान लो कार्य है। तो किसी का होगा । अब किसी का है तो किसका है ? यह प्रश्न तो निश्चित उठेगा । कोई कहेगा वह कर्ता ईश्वर है, कोई कहेगा भगवान् है और कोई कहेगा महावीर है, आदि -आदि । ऐसी स्थिति में प्रत्येक सत् के भीतर जो अनगिन सम्भावनाएँ हैं, वे सब नकार दी जाएँगी। ये सारी की सारी सम्भावनाएँ उस ईश्वर पर आधारित हो जाएँगी और यदि ऐसा मान भी लें तो भी हमें सन्तुष्टि नहीं मिलेगी । असन्तुष्टि का कारण यह है यदि ईश्वर कर्ता है तो उसने ऐसी विषम सृष्टि क्यों बनाई ? उसमें समानता क्यों नहीं ? कोई रंक है तो कोई राजा क्यों ? इसलिए ईश्वर को कर्ता कैसे माना जाय ? सृष्टि में यह व्यत्यास की प्रक्रिया बनी ही क्यों ? इससे लगता है कि यह प्रक्रिया बनी ही नहीं, किसी ने बनाई भी नहीं। जड़ और चेतन में अन्तर व्याप्त है, व्यत्यास है। चूँकि जीव कर्म करता है तो राग-द्वेष आदि भी करता है। इस प्रकार कर्मबन्ध होने के पश्चात् उसी कर्म का पुनः उदय होता है । और उसका फल वह स्वयं भोगता है। जड़ यह स्वयं नहीं करता । प्र. मा. - मलतब उस कुम्भकार के मन में कोई मॉडल नहीं था। उसने पहले कोई घड़ा नहीं देखा था और उसने अपने मन से नया बनाया । यह नई मौलिक उद्भावना है ? कहाँ से आई ? आ. वि.- नहीं, यह उद्भावना खरीददार की चाह के अनुरूप है, वह जो चाहता है उसके अनुरूप है । प्र. मा.- ओह ! आ. वि. - ग्राहक को देखकर ही दुकानदार को ज्ञात होता है कि दुकान में कहाँ-कहाँ क्या रखा है ? जब ग्राहक कहता है कि उसे कुछ दे दो तो दुकानदार जिज्ञासा करता है कि उसे क्या दे दे ? उसकी दुकान में तो हजारों सामान भरे पड़े हैं, तुम्हें क्या चाहिए । यही दृष्टान्त इस सन्दर्भ में भी लागू होता है । यहाँ केवल कुम्भकार नहीं चाहता, लोंदा स्वयं बता देता है कि मुझे इस प्रकार का आकार दें । प्र. मा.- 'कामायनी' में और कश्मीरी शैवदर्शन में बार-बार इच्छा, ज्ञान और क्रिया की बात आती है । सृष्टि के मूल में इन तीनों का सामरस्य रहता है। इच्छा तो सब में होती है पर तदनुरूप ज्ञान सब में नहीं होता। तो इच्छा और ज्ञान के बाद क्रिया का अर्थात् हेड, हार्ट और हैण्ड - दिमाग, दिल और हस्त इन तीनों का जब (समरस) सम्बन्ध होता है, तभी उनसे सृष्टि की बात सम्भव होती है । परन्तु आपने यहाँ जो बात कही है, उस सन्दर्भ में निराकार या साकार जैसा भी कुम्भकार माना जाय, क्या उसमें इच्छा पहले से रहती है ? ज्ञान रहता है ? क्रिया करने की इच्छा रहती है? या उसमें तीनों एक साथ उद्भूत रहते हैं ? आपके मन में क्या विचार है ? - आ. वि. - माँ जो होती है, उसकी अपनी कोई इच्छा नहीं होती । प्र. मा.- वाह ! वाह !! - बहुत अच्छा उत्तर आपने दिया । आ. वि. - सामने जब उसका बच्चा आता है, खाना माँगता है तो खाना खिला देती है। पेट भर जाने पर यदि वह खेलना चाहता है तो स्वयं साथ में खेलने लगती है। प्र. मा. - वाह ! हमारे गुरु पण्डित माखनलाल चतुर्वेदी अपने को 'माँ' लिखा करते थे । 'मुझको कहते हैं माता' उन्होंने कविता लिखी थी । सारी कविता वे इसी तरह मानते रहे। यह मिलती-जुलती प्रक्रिया है ।

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