Book Title: Mukmati Mimansa Part 01
Author(s): Prabhakar Machve, Rammurti Tripathi
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 15
________________ मूकमाटी-मीमांसा :: xi छन्द ही क्यों चुना, इस काव्य के लिए ? आपके [जैन प्रस्थान के] वे जितने पारम्परिक काव्य हैं - चाहे प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत या हिन्दी के बहुत से काव्य हों- मुक्त छन्द में इतना बड़ा काव्य बहुत कम लोगों ने लिखा है । 'कामायनी', 'उर्वशी', 'साकेत' भी छन्दोबद्ध ही हैं । हरिऔधजी के काव्य भी ऐसे ही हैं। 'रामायण' या 'रामचरितमानस' भी ऐसे ही हैं। ये सभी छन्दोबद्ध ही हैं। आपको क्या मुक्त छन्द में कोई सुविधा लगी? कारण बताएँगे ? क्या कारण है ? आ.वि.- इसमें एक तो सूत्रबद्धता यानी सूत्र रचना जिसको बोलते हैं, उसकी सुविधा मिल जाती है जो हमें इसमें देखने को मिली । छन्द जब बनाते हैं तब उसमें सूत्रात्मकता नहीं आ पाती, भले ही गेयता आ जाती है पर सूत्रात्मकता नहीं आ पाती । सूत्र में ऐसी क्षमता रहती है कि उसके माध्यम से हम संक्षेप में बहुत कुछ अर्थ कह लेते हैं। एक सुविधा तो यह है । दूसरी, छन्द में तुकबन्दी आदि-आदि पुनरावृत्ति जैसी लगती है। इससे उसमें कुछ कृत्रिमता भी आ जाती है । हम लाख प्रयत्न करें किन्तु उसका निवारण नहीं कर पाते पर वह अवांछित व्याघात या स्थिति आ ही जाती है। प्र. मा.- आपके छन्द में ज्यादातर व्यक्षर-प्रास आ जाता है । तेलगु और कन्नड़ में भी ये देखने को मिलता है। आपने कौन-कौन से महाकाव्य पढ़े हैं या देखे हैं या किनसे प्रभावित हुए हैं, जो आपके लेखन में प्रेरणास्रोत बन सके हैं ? आ.वि.- महाकाव्य के रूप में हिन्दी का तो मैंने कोई महाकाव्य नहीं देखा। प्र. मा. - नहीं, अपनी भाषा में ? संस्कृत, प्राकृत में या किसी अन्य भाषा में? आ.वि.- नहीं, हमने श्री गुरु महाराज (आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज) के द्वारा लिखित जो महाकाव्य हैं, उनका उन्होंने ही अपने श्रीमुख से अध्यापन कराया था। उनका 'जयोदय' महाकाव्य है, 'वीरोदय', 'सुदर्शनोदय' आदि महाकाव्य हैं, इनके अतिरिक्त उनके अन्य भी जो संस्कृत भाषा में निबद्ध ग्रन्थ हैं, उनसे पढ़ा करते थे। इस प्रकार संस्कृत भाषा के साथ-साथ हिन्दी भी अपने आप आ गई है। प्र. मा.- आपने 'कामायनी' भी नहीं पढ़ी? आ. वि.- गुरु जी ने यह कहा था कि पहले संस्कृत सीखो, उसके साथ-साथ यह सब आ जायगा । प्र. मा. - अंग्रेज़ी भी आप पढ़ते हैं या नहीं? आ. वि. - हाँ, थोड़ी-बहुत पढ़ लेता हूँ। प्र. मा. - श्री अरविन्द का 'सावित्री' महाकाव्य भी नहीं देखा ? आ. वि.- उसे साहित्यिक ढंग से (मूल में) नहीं पढ़ा। 'मूकमाटी' सृजन के पूर्व तो नहीं, किन्तु तत्पश्चात् अनूदित रूप में देखा है। प्र. मा. - काफी अच्छा ग्रन्थ है । उसका अनुवाद भी हिन्दी में हुआ है। उसकी गणना बीसवीं शती के अच्छे ग्रन्थों में होती है । तो यह 'मूकमाटी' महाकाव्य स्वतः स्फूर्त पद्धति से लिखा गया है। ___ अच्छा, यह बताइए कि इसमें जो चार खण्ड आपने रखे हैं, इसकी भावना आपके मन में कहाँ से आई ? आ. वि.- नहीं। मैंने पहले चार खण्ड नहीं बनाए। पहले तो धाराप्रवाह आद्योपान्त यों ही लिख गया। बाद में महसूस हुआ कि यह पाठकों के लिए असुविधाजनक हो सकता है, फलत: कोई काट-छाँट तो नहीं की, किन्तु प्रसंगों को लेकर भिन्न-भिन्न शीर्षक अवश्य रचे । अब इन को (शीर्षकों को) निकाल भी देते हैं तो भी इसकी निरन्तरता भंग नहीं होती, धारा नहीं टूटती । वह अविरुद्ध बनी रहती है। साथ ही यदि भिन्न-भिन्न मदखा

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