Book Title: Mukmati Mimansa Part 01
Author(s): Prabhakar Machve, Rammurti Tripathi
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 16
________________ xii :: मूकमाटी-मीमांसा शीर्षक रख भी देते हैं तो पाठक थोड़ा विश्राम जैसा अनुभव कर लेता है। प्र. मा.- अच्छा, अब मेरी जिज्ञासा पंच तत्त्वों के सम्बन्ध में है । आपने जल, मिट्टी, सूर्य-प्रकाश-अग्नि, वायु और आकाश-इनका प्रयोग इसमें रूपकात्मक पद्धति पर किया है या कि कोई और पद्धति पर और किसी अन्य अर्थ में किया है ? इन्हें केवल भौतिक पंच तत्त्व के रूप में न लेकर किसी पात्र का प्रतीक बनाकर ही नहीं वरन् उनका मानवीकरण किया है, कहीं-कहीं दिव्यीकरण भी किया है। अत: अब यह बताइए कि इन तत्त्वों के सम्बन्ध में जैसे मिट्टी आदि कहा तो इसके बारे में आपका मत क्या है ? अर्थात् उनके साथ जो एसोसियेशन्स (साहचर्य) बनते हैं या कहलाते हैं मनोविज्ञान में, वे क्या हैं ? आपका 'मिट्टी' से क्या मतलब है ? सचमुच ही मिट्टी अथवा कोई शरीर या मिट्टी का घड़ा ? क्या आशय है आपका ? आ. वि.-'मिट्टी' का अर्थ इतना ही लिया गया है कि वह एक अनगढ़ पदार्थ है। प्र.मा.- जिसमें बहत सारे कंकड भी मिले हैं। आ. वि.- जी हाँ ! बहुत कुछ मिक्चर (मिश्रण) है, तो उनका संशोधन करके जिस प्रकार घड़े का रूप दिया जाता है उसी प्रकार अनगढ़ आत्माएँ, जो कि अनन्तकालीन हैं, उनको भी कोई विशिष्ट शिल्पी का योग मिल जाता है और वह स्वयं मिट्टी के समान उसके प्रति समर्पित होता चला जाता है तो वह भी निश्चित रूप से कुम्भ के समान मंगलमय हो जाता है या बन सकता है। प्र. मा.- यह उसका उपादान कारण है या निमित्त ? आ. वि.- जी हाँ ! उसका उपादान कारण तो वह स्वयं है । स्वयं मिट्टी ही लोंदे के रूप में परिवर्तित होगी। शिल्पी का (निमित्त-प्रेरक निमित्त) योग पाकर यह परिवर्तन होगा। इसको अपने यहाँ उपादान एवं निमित्त कारण बोलते हैं। प्र. मा.- यानी कुम्भकार जब कुम्भ बनाता है तो उसका आशय यह कि कुम्भ जो है वही कुम्भकार को बना रहा है। आ. वि.- जी हाँ ! जी हाँ !! प्र. मा.- इसमें द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया है । तो इस मिट्टी के लोंदे से जो आकार उभरा है घड़े का, उसका क्या करना है ? क्या यह पहले से कुम्भकार के मन में रहता है या बनता जाता है ? उसके बाद उसका उपयोग होता है । आ.वि.- हाँ ! कुम्भकार का इसमें उद्देश्य रहता है, क्योंकि उसके माध्यम से वह अपनी जीविका चलाता है । रहा कुम्भ, उसका मतलब यह है कि जो मिट्टी के रूप में था, वह कुम्भ के रूप में परिवर्तित हो जाता है । इसी प्रकार गुरु और शिष्य का सम्बन्ध है। गुरु के माध्यम से शिष्य का उत्थान होता है । शिष्य यदि चाहेगा तो पाएगा । उसमें पात्रता आ गई है। प्र.मा.- अब मैं सृष्टिकर्ता और सृष्टि की बात करना चाहता हूँ, जिसका बार-बार आप उल्लेख करते हैं। क्या जो सृष्टिकर्ता है वह कुम्भकार है और जो सृष्टि है कुम्भ-वह क्या है ? मैं यह जानना चाहता हूँ कि वह किस चीज से सृष्टि बनाता है ? वह अपने अन्दर से उपजाता है, सृष्टि बनाता है या कोई बाहर की चीज़ है जिससे बनाता है ? इस विषय में दार्शनिकों में बहुत ऊहापोह और वाद-विवाद रहा है। जब शंकराचार्य से पूछा गया कि आपके यहाँ सृष्टि क्यों और कैसे बनी या बनाई गई ? तो वह युक्तिसंगत उत्तर ना दे सके। कारण, वह तो निरीह है, अत: उस परम सत्ता में कोई इच्छा ही नहीं और बिना इच्छा के क्रिया कैसे होगी ? फिर वह पूर्णकाम है, अत: उसे कोई अभावात्मक प्रयोजन भी नहीं, फिर सृष्टि क्यों बनाई ? जब उनको बहुत छेड़ा गया तो उत्तर दिया-“लोकवत्तु लीलाकैवल्यम्"(ब्रह्मसूत्र,२/१/३३)-जिस प्रकार लोक में निष्प्रयोजन लीला की जाती है, क्योंकि लीला का प्रयोजन स्वयं लीला ही है, वैसे ही परमेश्वर ने की है यह

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