Book Title: Manidhari Jinchandrasuri
Author(s): 
Publisher: Shankarraj Shubhaidan Nahta

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Page 7
________________ ( २ ) न्याय से यह चरित्र स्वतन्त्र रूप से प्रकाशित करते हुए हमे हर्प होता है। हमे यह देख कर दुख होता है कि लोगों मे साहित्यिक रूचि का वडा ही अभाव है। खास कर राजस्थानी और जेन साहित्य के प्रति तो हिन्दी भापा-मापियों का रुख बड़ा ही विचारणीय है। यदि यह विचार किया जाय तो प्रमाणित होगा कि ये दोनों साहित्य भारतीय भापाओं में संस्कृत को छोड़ कर वाकी किसी भी भाषा के साहित्य-भडार से टकर ले सक्ने है। पर जैन समाज और राजस्थानी ससार अपनी इस साहित्य निधि को इस प्रकार मुलाये बैठा है मानो उससे उसका कुछ सम्बन्ध ही नहीं है। यदि हम और भी संकुचित दृष्टि से विचार करें तो मालूम होगा कि, खरतरगच्छ मे दादाजी के हजारों भक्त है। साथ ही दादाजी के माननेवालों की तादाद अन्य गच्चों में भी काफी है। भावुक श्रावक दादाजी के मदिर, पादुकाओ के स्थापनादि कार्यों में दिल खोलकर खर्च करते हैं। मुक्तहस्त होकर उनकी सेवा-भावना का प्रसार होता है। पर सबसे अधिक दुःख तो इस बात का है कि, हम जिनकी अर्चना, सेवा और भक्ति प्रदर्शन के लिये इतनी धनराशि व्यय करते हैंउनकी कृतियों का, उनके अप्रतिम चरित्रो को जानने की ओर चप्टिपात भी नहीं करते। यह जाति की मरणोन्मुखता का ही द्योतक है। जागृत जातियां कभी भी ऐसा नहीं कर सकती। इससे कोई हमारा मतलब यह नहीं समझे कि हम पूजा-अर्चना

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